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________________ [ २२८ ] निकलने से व्यञ्जित होता है। रसार्णवसुधाकरः आत्मगतैर्यथा ( वेणीसंहारे ५/१४)अयि कर्ण कर्णसुभगां प्रयच्छ मे गिरमुद्वमन्निव मयि स्थिरां मुदम् । अनुजैर्विमुक्तमकृताप्रियं कथं वृषसेनवत्सल ! विहाय यासि माम् ।।413।। स्वगत विभावो से शोक जैसे (वेणीसंहार ५ / १४ मे) - हे कर्ण, मुझमें स्थायी प्रसन्नता को उड़ेलते हुए से (तुम) कानों को प्रिय लगने वाली वाणी मुझे प्रदान करो। हे वृषसेन पर स्नेह करने वाले, कभी भी न बिछुड़े हुए, (तुम्हारा) अप्रिय न करने वाले, प्रिय मुझको छोड़कर जा रहे हो ? (अर्थात् मुझको इस तरह छोड़ कर जाना उचित नहीं)।।413।। स्यादेष मृतिपर्यन्त स्वपरस्थैस्तु मध्यमम् ।। १४३।। अनतिव्यक्तरुदितप्रमुखास्तत्र विक्रियाः । मध्यम व्यक्ति का शोक- स्वगत और परगत अनुभावों से यह शोक मध्यम में मृत्तिपर्यन्त रहता है। इसमें अत्यधिक छिपा हुआ रुदन इत्यादि विक्रियाएँ होती है।।१४३उ.-१४४पू.। स्वगतैर्मध्यमस्य यथा करुणाकन्दले - न्यायोपाधिरयं यदश्रुकणिकां मुञ्चन्ति बन्धुव्यये रागोपाधिरयं त्यजन्ति विषयान् यज्ज्ञातयो दुस्त्यजान् । प्राणानां पुनरुत्क्रमः किमुपधिस्तत् केन विज्ञायते देवं चानकदुन्दुभिं दशरथं चेक्ष्वाकुवंशं विना ।।414।। अत्र वसुदेवस्य बन्धुविपत्तिजः शोकः प्राणोत्क्रमणेन व्यज्यते । स्वगत विभावों से मध्यम का शोक जैसे करुणाकन्दल मेंबन्धु की हानि होने पर जो आँसुओं के कणों को गिराता है, यह न्यायोपाधि है। जो परिचित दुस्त्याज्य विषयों को छोड़ देते हैं, वह रागोपाधि है फिर देवताओं के बड़े नगाड़े और इक्ष्वाकुवंशीय दशरथ के बिना यह कौन बता सकता है कि जो प्राणों का उत्क्रम करता है, वह कौन सी उपाधि है ।। 414 ।। यहाँ वसुदेव का बन्धुविपत्ति से उत्पन्न शोक 'प्राणों' के उत्क्रमण से व्यञ्जित होता है । परगतेर्यथा निर्भिद्यन्त इवाङ्गकान्यसुहरैराक्रन्दसंस्तम्भनैः कण्ठे गर्वनिरुद्धबाष्पविगमे वाचां गतिर्गद्गदा ।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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