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________________ [ २१२] रसार्णवसुधाकरः को द्रवीभूत कर दिया)।।385।। -- यहाँ लक्ष्मी और नारायण के एक दूसरे के परस्पर देखने से उनके अन्त:करण का द्रवीभूत होना व्यञ्जित है। स्पर्शेन यथा (अमरुशतके ४०) गाढालिङ्गनवामनीकृतकुचप्रोद्भिनरोमोद्गमा सान्द्रस्नेहरसातिरेकविगलच्छीमनितम्बाम्बरा मा मा मानद! माति मामलमिति क्षामाक्षरोल्लापिनी सुप्ता किनु मृता नु किं मनसि मे लीना विलीना नु किम् ।।386।। स्पर्श से स्नेह जैसे (अमरुशतक ४० में) (कोई विरहविधुर नायक नायिका की सुरतावस्था का स्मरण करता हुआ कर रहा है) सुरतकाल में गाढ़ आलिङ्गन से जिसके कुच दब गये थे और जिन पर रोमाञ्च हो आये थे, घने स्नेहरस की अधिकता के कारण जिसके नितम्ब के वस्त्र सरक गये थे और जो टूटी फूटी वाणी में मुझसे कह उठी कि हे मानद! नहीं-नहीं, मुझे अधिक न सताओं, अब बस करो। क्या वह मेरी प्रिया सो गयी है, या मर गयी है या मेरे हृदय में लीन हो गयी है या कहीं विलीन हो गयी है।।386।। स त्रेधा कथ्यते प्रौढमध्यमन्दविभेदतः ।।११३।। स्नेह के प्रकार - प्रौढ़, मध्यम और मन्द भेद से वह (स्नेह) तीन प्रकार का होता है।।११३उ.॥ (अथ प्रौढः) प्रवासादिभिरभिज्ञातश्चित्तवृत्तौ प्रिये जने । इतरक्लेशकारी यः स प्रौढ़ स्नेह उच्यते ।।११४।। प्रौढ़ स्नेह- प्रवास इत्यादि के कारण प्रियजन की चित्तवृत्ति (मनोभाव) ज्ञात न होने पर जो एक दूसरे को क्लेश पहुँचाने वाला स्नेह है, वह प्रौढ़ कहलाता है।।११४॥ यथा (मेघदूते २/४९) एतस्मान्मां कुशलिनमभिज्ञानदानाद् विदित्वा मा कौलीनादसितनयने! मय्यविश्वासिनी भूः । स्नेहादाहुः किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते ह्यभोगादिष्टे वस्तुन्युपचितरसाः प्रेमराशीभवन्ति ।।387 ।। अत्र प्रोषिते यक्षे स्नेहजनितया तदन्यासङ्गशङ्कया जनितः प्रियाक्लेशो मय्यविश्वासिनी भूरिति प्रत्याश्वासनेन व्यज्यते।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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