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________________ द्वितीयो विलासः [२११] बध्नातिभावविस्रम्भं सोऽयं प्रणयउच्चते । (३) प्रणय- जो प्रेम मान से उत्पन्न तथा बाहरी और भीतरी सौजन्य (उपचार) से भावविस्रम्भ को बाँधता है, वह प्रणय कहलाता है।।१११उ.-११२पू.॥ यथा प्रतिश्रुतं द्यूतपणं सखीभ्यो विवक्षति प्रेयसि कुञ्चितभूः । कण्ठं कराभ्यामवलम्व्य तस्य मुखं पिधते स्वकपोलकेन ।।384।। अत्र भावबन्धनापराधकौटिल्ययोरनुवृत्तौ कण्ठलम्बनादिनोपचारेण विस्रम्भः। जैसे सखियों से द्यूत के पासे पर लगाये जाने को सुन कर प्रिया की कुछ कहने की इच्छा होने पर अपनी भौंहों को टेढ़ी कर लेने वाली (उस प्रिया) ने उस (नायक) के गले को अपने हाथों से सहारा देकर (पकड़ कर) (उसके) मुख को अपने कपोल से लगा लिया।।384।। यहाँ भाव-बन्धन और अपराध की कुटिलता की अनुवृत्ति होने पर कण्ठ को सहारा देना इत्यादि उपचार के कारण विस्रम्भ है। अथ स्नेहः विस्रम्भे परमां काष्ठामारुढे दर्शनादिभिः ।।११२।। . यत्र द्रवत्यन्तरङ्ग स स्नेह इति कथ्यते । (४) स्नेह दर्शन इत्यादि द्वारा विस्रम्भ के पराकाष्ठा पर हो जाने पर जिससे हृदय द्रवित हो जाता है, वह स्नेह कहलाता है।।११२उ.-११३पू.॥ दर्शनेन यथा कन्दर्पसम्भवे ममैव उभे तदानीमुभयोस्तु चित्ते कदुष्णनिःश्वासचरिष्णुकेन । एकीकरिष्यत्रनुरागाशिल्पी रागोष्मणैव द्रवतामनैषीत् ।।385 ।। अत्र लक्ष्मीनारायणयोरन्योऽन्यदर्शनेनान्तःकरणद्रवीभावः। दर्शन से स्नेह जैसे कन्दर्पसम्भव में ही उस समय एकत्र करते हुए अनुराग-शिल्पी ने थोड़ी गरम श्वास को सक्रिय करने वाले राग की ऊष्मा द्वारा दोनों (लक्ष्मी तथा नारायण) के चित्त में द्रवता को ला दिया (दोनों के चित्त रसा.१७
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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