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________________ द्वितीयो विलासः रथ के उथल पुथल (संक्षोभ ) के कारण रथ के चाक के समान सुन्दर नितम्ब वाली(रमणी) के कन्धे से (मेरे) कन्धे का जो स्पर्श हो गया उससे कामदेव के द्वारा रोमाञ्च अङ्कुरित कर दिया गया।। 376 ।। रूपेण यथा | २०७] अयं रामो नायं तु जनकधर्मं दलितवानयं कामो नायं स तु मधुमनामोदितमना । सखि ! ज्ञातं सोऽयं युवतिनयनोत्पादनफलं निदानं भाग्यानां जयति खलु शिङ्गक्षितिपतिः ।।377।। अत्र रामादिस्मरणहेतुना नायकरूपातिशयेन कस्याश्चिद् रतिः । रूप से जैसे (एक सखी दूसरी सखी से शिङ्गभूपाल के रूप का वर्णन करती हुई कहती है- ) हे सखी! ये राम है (अरे!) नहीं, इन्होंने तो जनक के धर्म का दलन किया है। ये कामदेव हैं (अरे!) नहीं, ये तो मधुरविचार से प्रसन्न मन वाले हैं। अरे! मैं समझ गयी ये तो युवतियों के लिए उत्पन्न फल तथा भाग्यों के कारण शिवभूपाल हैं जो निश्चित रूप से जीतते हैं ।। 377 ।। यहाँ रामादि के स्मरण के कारण नायक के अतिशय रूप से किसी (नायिका) की रति है। रसेन यथा (कुमारसम्भ्सवे ३.६७)हरस्तु किञ्चित्परिवृतधैर्य श्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः । उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि । 1378 ।। रस से रति जैसे (कुमारसम्भव ३/६७ मे) - जिस प्रकार चन्द्रमा का उदय होने पर अत्यन्त गम्भीर भी समुद्र क्षुब्ध हो जाता है उसी प्रकार शङ्कर जी भी (काम के सम्मोहन नामक बाण के चढ़ाने के कारण) कुछ अधीर हो गये और बिम्बाफल के समान लाल ओठ वाली पार्वती के मुख को अपनी तीनों आखों से देखने 1137811 अत्रापि यद्यपि सम्भोगात्प्रागज्ञातस्याधररागस्य रसं प्रति विभावता न सङ्गच्छते, अथापि प्रसिद्धेः सम्भावितस्य रसस्यैव विभावत्वं बिम्बाफलाधरोष्ठ इति पदेन व्यज्यते । अथवा समास्वादितदाक्षायणीबिम्बाधरस्य परमेश्वरस्य तद्रसेनैव जननान्तरसङ्गतायामपि तस्यां रतिः । यहाँ भी यद्यपि सम्भोग से पूर्व अज्ञात अधर- लालिमा का रस के प्रति विभावता
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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