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________________ [ १८४ ] रसार्णवसुधाकरः गुरुप्रसादाद् यथा (अनर्घराघवे १.१८) - अस्मद्गोत्रमहत्तरः क्रतुभुजामद्याय माद्यो रविज्वानो वयमद्य ते भगवती भूरद्य राजन्वती । अद्य स्वं बहुमन्यते सहचरैरस्माभिराखण्डलो येनैतावरुन्धतीपतिरपि स्वेनानुगृह्णाति नः ।।329।। कारिका में प्रयुक्त आदि शब्द से गुरु, राजा की प्रसन्नता को भी समझना चाहिए । गुरु की प्रसन्नता से हर्ष जैसे (अनर्घराघव १.१८ में ) - आज यज्ञांश भोक्ताओं में प्रथम सूर्य हमारे वंश के प्रवर्तक सिद्ध हुए, आज हमारे यज्ञ सफल हुए, आज ही पृथ्वी ने सुराजा प्राप्त किया, आज इन्द्र हमारे समान मित्र को पाकर अपने को आदृत समझते है, जबकि स्वयं वसिष्ठ मुझ पर इतना अनुग्रह रखते हैं । 1329 ।। राजप्रसादाद् यथा (शिशुपालवधे १४.४१ ) - प्रीतिरस्य ददतोऽभवत् तथा येन तत्प्रियचिकीर्षवो नृपाः । स्पर्शितैरधिकमागमन्मुदं नाधिवेश्मनिहितैरुपायनैः 1133011 राजा की प्रसन्नता से जैसे (शिशुपालवध १४.४१ में ) - दान देते हुए इस राजा (युधिष्ठिर) को उसी प्रकार ( याचकों के प्रति) प्रीति हुई जिस प्रकार उस (राजा) के प्रिय चाहने वाले राजा लोग दिये गये उपहारों से अधिक प्रसन्न होते हैं, घर में रखे गये (उपहारों) से नहीं । 133011 अथौत्सुक्यम् कालाक्षमत्वमौत्सुक्यमिष्टस्तुवियोगतः 1 तद्दर्शनाद् रम्यवस्तुदिदृक्षादेश्च विक्रियाः ।। ७९ ।। त्वरानवस्थिति शय्यास्थितिरुत्थानचिन्तने । शरीरगौरवं निद्रातन्द्रा निःश्वसितादयः ।।८० ।। (२६) उत्सुकता - अभीष्ट वस्तु के वियोग से समय के व्यवधान का सहन न कर सकना उत्सुकता कहलाती है। उस अभीष्ट को देखने से, रमणीय वस्तु को देखने की इच्छा, शीघ्रता, अस्थिरता, शय्या पर पड़े रहना, उठना, चिन्तन, शरीर में भारीपन, निद्रा, तन्द्रा, निःश्वास इत्यादि विक्रियाएँ होती है ।। ७९-८० ॥ इष्टस्तुवियोगाद् यथा (मेघदूते २/४५ ) - सङ्क्षिप्त क्षण इव कथं दीर्घयामा त्रियामा
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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