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________________ [१४४ रसार्णवसुधाकरः भूदेवं क्षणमपि च ते विद्युता--विप्रयोगः ।।236।। हृदय की वेदना से (दीनता) जैसे (मेघदूत उ. ५२ में) हे मेघ, चाहे मित्रता के कारण अथवा यह यक्ष बेचारा प्रिया से बिछुड़ा हुआ है इस विचार से मेरे ऊपर दया की भावना से, अनुचित प्रार्थना करने वाले अथवा मेरे इस प्रिय कार्य को करके वर्षा ऋतु के कारण अतिशय शोभा से सम्पन्न होते हुए (तुम) अपने मनचाहे देशों में विचरण करना और क्षण भर भी तुम्हारा (अपनी प्यारी पत्नी) विद्युत् से ऐसा (अर्थात् मेरे समान कभी) वियोग न हो।।236।। दौर्गत्याद् यथा दीना दीनमुखैः सदैव शिशुकैराकृष्ट जीर्णाम्बरा क्रोशद्भिः क्षुधितैर्निरन्नविधुरा नेक्ष्येत चेद् गेहिनी । याञ्चादैन्यभयेन गद्गलत्रुट्याद्विलीनाक्षरं को देहीति वदेत् स्वदग्धजठरस्यार्थे मनस्वी पुमान् ।।237।। दुर्गति से (दीनता) जैसे दुःखी, दीनमुख, भूखे तथा चिल्लाते हुए बच्चों द्वारा खीचे जाते हुए पुराने वस्त्र वाली, निरन से चिन्तित यदि पत्नी नहीं देखती है तो याचना की दीनता के भय से गद्गद् और टूटी फूटी होने के कारण अस्पष्ट अक्षर 'कौन मनस्वी पुरुष अपने जलते हुए पेट के दे रहा है' को कहना चाहिए।।237।। अथ ग्लानिः आधिव्याधिजरातृष्णाव्यायामसुरतादिभिः ।।१२।। निष्प्राणताग्लानिस्तत्र क्षामाङ्गवचनक्रिया । तापानुत्साहवैवर्ण्यनयनभ्रमणादयः ।।१३।। (४) ग्लानि- मानसिक पीड़ा, रोग, बुढ़ापा, तृष्णा, व्यायाम, सुरत इत्यादि के द्वारा निष्प्राण (मलिन) होना ग्लानि कहलाता है। इसमें शरीर, वचन और क्रिया में क्षीणता, कष्ट, अनुत्साह, वैवर्ण्य (मुख की मलिनता), नेत्रों का घुमाना इत्यादि (अनुभाव होते हैं)।१२उ.-१३।। आधिना यथा (उत्तररामचरिते ३.५)किसलयमिव मुग्धं बन्धनाद् विप्रलूनं हृदयकुसुमशोषी दारुणो दीर्घशोकः । ग्लपयति परिपाण्डु क्षाममस्याः शरीरं शरदिज इव धर्मः केतकीपत्रगर्भम् ।।238 ।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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