SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयो विलासः दुनिर्मित्ताद्यथा ( रघुवंशे १४.५० ) - सा दुर्निमित्तोपगताद् विषादात् सद्यः परिम्लानमुखारविन्दा | राज्ञः शुभं सावरजस्य, भूयादित्याशंसे करणैरबाहयैः ।।234।। अत्र दुर्निमित्तानुमितायाः विपतेर्मुखशोषणलक्षणेनानुभावेन वैदेहयाः विषादः । दुर्निमित्त से विषाद जैसे ( रघुवंश १४.५० मे) - यह अपशकुन होते ही सीता का मुँह उदास हो गया और वे मन ही मन मनाने लगी कि भाइयों के साथ राजा सुख से रहें उन पर आँच न आवे । । 234 ।। यहाँ अपशकुन से अनुमान की जाने वाली विपत्ति के कारण से मुँह को सूखने (उदास होने) से लक्षित अनुभाव से सीता का विषाद है । अपराधपरिज्ञानाद् यथा ( रघुवंशे ९/७५) - हा तातेति क्रन्दितमाकर्ण्य विषण्णस्तस्यान्विष्यन् वेतसगूढं प्रभवं सः । शल्यप्रोतं प्रेक्ष्य सकुम्भं मुनिपुत्रं तापादन्तश्शल्य इवासीत् क्षितिपोऽपि ।।235।। | १४३ ] अपराध - परिज्ञान से विषाद जैसे (रघुवंश ९-७५ में) - हा पिताजी! इस प्रकार श्रवणकुमार का करुण क्रन्दन सुनकर दुःखी होकर बेतों के कुञ्जों में छिपे हुए उस करुण ध्वनि की उत्पत्ति - स्थान को ढूढ़ते हुए राजा दशरथ ने देखा कि बेंत की झाड़ियों में बाणों से विद्ध घड़े पर झुका हुआ कोई मुनिकुमार पड़ा हुआ है उसे देखकर उनको ऐसा कष्ट हुआ मानो इन्हें ही बाण लग गया हो ।। 235 ।। अथ दैन्यम् हृत्तापदुर्गतित्वाद्यै नैश्चित्यं हृदि दीनता ।। ११ ।। अत्रानुभावा मालिन्यगात्रस्तम्भादयो मताः । (३) दीनता - हृदय की वेदना, दुर्गति इत्यादि से हृदय की स्थिरता दीनता कहलाती है। मलिनता, शरीर की जड़ता इत्यादि ( इसके ) अनुभाव कहे गये हैं ।। ११उ. - १२पू. ।। हृत्तापाद् यथा (मेघदूते २.५२) - एतत्कृत्वा प्रियमनुचितप्रार्थनावर्त्मनो मे सौहार्दाद् वा विधुर इति वा मय्यनुक्रोशबुद्ध्या । इष्टान् देशान् विचर जलद ! प्रावृषा सम्भृतश्री
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy