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________________ [ १३६] रसार्णवसुधाकरः यहाँ इन्दुमती (की मृत्यु) रूपी विपत्ति से उत्पन्न दुःख के कारण अज का प्रलय घातेन यथा (रघुवंशे ७/४७) पूर्व प्रहर्ता न जघान भूयः प्रतिप्रहाराक्षममश्वसादी । तुरङ्गमस्कन्धनिषण्णदेहं प्रत्याश्वसन्तं रिपुमाचकांक्ष ।। 225।। अत्र प्रतिभटप्रहारेणावसादिनो मूर्छा। घात से प्रलय जैसे (रघुवंश ७.४७ में) एक घुड़सवार ने अपने शत्रु घुड़सवार पर प्रहार किया जिससे वह घोड़े के कन्धे से झूल गया, उसमें अपना शिर उठाने की भी शक्ति नहीं रही। पहले प्रहार करने वाले घुड़सवार ने मूर्छित होने के कारण अपने ऊपर अस्त्र चलाने में असमर्थ उस शत्रु पर पुनः प्रहार नहीं किया प्रत्युत उसके जीने की इच्छा की (क्योंकि ऐसे शत्रुओं पर प्रहार करना निन्दित माना गया है।)।।225 ।। यहाँ योद्धा के प्रहार से घुड़सवार-शत्रु की मूर्छा स्पष्ट है। सर्वेऽपि सत्त्वमूलत्वाद्भावा यद्यपि सात्त्विकाः ।।३१०।। तथाप्यमीषां सत्त्वैकमूलत्वात् सात्त्विकत्प्रथा । यद्यपि सत्त्वमूलक सत्त्व से उत्पन्न होने के कारण वे सभी भाव सात्त्विक हैं तथापि इनकी सत्त्वमूलकता के कारण ये सात्त्विक (भाव) कहलाते हैं।।३१०उ.-३११पू.।। अनुभावाश्च कथ्यन्ते भावसंसूचनादमी ।।३११।। एवं द्वैरूप्यमेतेषां कथितं भावकोविदः । भाव की सूचना देने के कारण ये अनुभाव भी कहे जाते हैं। इसप्रकार भाव के ज्ञाताओं ने इनका दो रूप बतलाया है।।३११७./३१२॥ अनुभावैकनिधिना सुखानुभवशालिना ।।३१२।। श्रीशिङ्गभुभूजा साङ्गमनुभावा निरूपिता । इस प्रकार शिङ्गभूपाल ने अङ्गों के सहित अनुभावों का निरूपण किया है। अस्मत्कल्पलतादलानि गिलति त्वत्कामगौर्वार्यतामच्चिन्तामणिवेदिभिः परिणमेद् दूरान्नयोच्चैर्गजम् । इत्यारूढवितर्दिका प्रतिपथं जल्पन्ति भूदेवताः शिङ्गमाभुजि कल्पवृक्षसुरभी हस्त्यादिदानोद्यते ।।३१३।। अनुभाव के अद्वितीय ज्ञाता और सुखानुभवशाली कल्पवृक्ष के समान (दान देने में) प्रसिद्ध शिङ्गभूपाल के हाथी इत्यादि के दान देने के लिए उद्यत (तैयार) हो जाने पर (हे देवो!) आप लोगों की कामधेनु हमारे कल्पलता (रूपी शिङ्गभूपाल) के पत्तों (रूपी दान) को
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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