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________________ प्रथमो विलासः [८१] क्रियया व्यज्यते तत्र विहृतं तदुदीरितम् ।। १०. विहृत- ईर्ष्या, मान और लज्जा के कारण जिस क्रिया (चेष्टा) से उचित उत्तर व्यञ्जित होता है, वह विहृत कहलाता है।।२०७उ.-२०८पू.॥ ईय॑या यथा (रघुवंशे ६.८२) तथागतायां परिहासपूर्व सख्यां सखी वेत्रमृदावभाषे । आर्ये! व्रजावोऽन्यत इत्यथैनां वधूरसूया कुटिलं ददर्श ।।124।। व्रजाव इत्यत्रोत्तरस्य कुटिलदर्शनेनैव व्यञ्जनाद् विहृतम् । ईर्ष्या से जैसे (रघुवंशे ६.८२में) अज में इन्दुमती को इस प्रकार अनुरक्त जान कर द्वारपालिका इन्दुमती से परिहास की दृष्टि से कहने लगी हे आर्ये! आगे बढ़िए। दूसरे राजा के पास चलें, इस पर उस राजकुमारी ने उसे असूया-पूर्वक कुटिल दृष्टि से देखा।।124।। 'आगे बढ़िए' यहाँ इसके उत्तर का कुटिलता-पूर्वक देखने से ही व्यञ्जित होने के कारण विहत है। मानेन यथा (चौरपञ्चाशिकायाम्११) अद्यापि तन्मनसि सम्परिवर्तते मे रात्रौ मयि श्रुतवति क्षितिपालपुत्र्या । जीवेति मङ्गलवचः परिहृत्य रोषात् कर्णेऽर्पितं कनकपत्रमनालपन्त्या ।।125 ।। मान के कारण जैसे (चौरपञ्चाशिका ११ में) आज भी वह दृश्य मेरे मन में घूम रहा है जब रात में मेरे छींकने पर राजकुमारी ने 'जीव' इस मङ्गल वचन का क्रोध के कारण उच्चारण न करके बिना कुछ बोले कानों में सुवर्णपत्र लगा लिया।।125 ।। लज्जया यथा (कुमारसम्भवे ८.६) अप्यवस्तूनि कथाप्रवृत्तये प्रश्नतत्परमनङ्गशासनम् । वीक्षितेन परिगृह्य पार्वती मूर्धकम्पमयमुत्तरं ददौ ।।126।। लज्जा के कारण जैसे (कुमारसम्भव ८.६ में) जब कभी शङ्कर जी बात-चीत के प्रसङ्ग में कामुक चेष्टाओं से भरी हुई कुछ अटपटी बातें करते हुए उसके विषय में उनका उत्तर चाहते थे तो वे पार्वती लज्जा के कारण मुँह से कुछ भी न कह कर टेढ़ी चितवन से उनकी ओर देख कर सिर हिलाते हुए उनके प्रश्नों का उत्तर दे देती थी।।126।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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