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________________ प्रथमो विलासः ५. अभिरूपता- जिस अपने गुणोत्कर्ष के कारण समीप में स्थिति वस्तु अन्य वस्तु के समान रूपता को प्राप्त करती हैं उसे प्राज्ञों ने अभिरूपता कहा है।।१८३॥ यथा (भोजचरिते) एकोऽपि त्रय इव भाति कन्दुकोऽयं कान्तायाः करतलरागरक्तरक्तः । भूमौ तच्चरणनखांशुगौरगौरः खस्थः सन् नयनमरीचिनीलनीलः ।।79।। जैसे (भोजचरित में) एक ही गेंद प्रियतमा के (हाथ में होने पर) हथेलियों की रक्तिमा से युक्त होने के कारण रक्तिम, पृथ्वी पर होने पर उसको पैरों के नखों की किरणों के गोरे होने के कारण गौरवर्णवाला (शुभ्र) और आकाश में (होने पर) (उसके) नेत्रों की किरणों की नीलिमा से युक्त (होने के कारण) नीला दिखलायी पड़ता है। (इस प्रकार एक ही गेंद) तीन (गेंद) के समान आभासित होता है।।79।। अथ मार्दवम् स्पृष्टं यच्चाङ्गमस्पृष्टमिव स्यान्मार्दवं हि तत् । ६. मादर्व (मृदुता)- जिसमें स्पर्श किया गया अङ्ग भी न छुए गये के समान रहता है, वह मृदुता कहलाती है।।१८४पू.॥ यथा याभ्यां दुकूलान्तरलक्षिताभ्यां विस्रंसते स्नैग्धगुणेन दृष्टिः । निर्माणकालेऽपि ततस्तदूर्वोः संस्पर्शशङ्का न विधेः कराभ्याम् ।।80 ।। अत्र अमूर्तापि दृष्टि विस्रंसते मूर्ती करौ किमुतेति श्लक्ष्णत्वातिशयकथ-नाद्मादर्वम्। जैसे (नायिका के) दुपट्टे के भीतर से दिखलायी पड़ने वाले जिन दोनों जङ्घाओं से चिकनाहट के गुण के कारण दृष्टि फिसल जा रही है (उन जंघाओं) को बनाते समय भी ब्रह्मा के हाथों के द्वारा संस्पर्श (स्पर्श करके बनाए जाने) की शङ्का नहीं है।।80।। यहाँ अमूर्त दृष्टि फिसल जा रही है फिर मूर्त हाथों का क्या! इस कोमलता के अतिशय कथन से मार्दव है। अथ सौकुमार्यम् या स्पर्शासहताङ्गेषु कोमलस्यापि वस्तुनः ।।१८४।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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