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१५६] :: :: :: :: श्री सथारापरिश। याना जइ ताव ते मुणिवरा आरोविअवित्थरा अपरिकम्मा। गिरिपन्भारविलग्गा बहुसावयसंकडं भीमं ॥११॥
धीधणिअबद्धकच्छा अणुत्तरविहारिणो समक्खाया। सावयदाढगयावि हु साहंती उत्तम अहं॥१११॥
किं पुण अणगारसहायगेहिं धीरेहिं संगयमणेहिं । नहु नित्थरिजइ इमो संथारो उत्तमं अलु ? ॥११२॥
उच्छूढसरीरघरा अन्नो जीवो सरीरमन्नंति। धम्मस्स कारणे सुविहिआ सरीरंपि छडंति॥११३।।
पोराणिअपच्चुप्पन्निआउ अहिआसिऊण विअणाओ कम्मकलंकवल्ली विहुणइ संथारमारूढो ॥११॥