________________
चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये षष्ठः क्त्वादिपादः अजेर्वीभावो न भवति। केचिन्नोदाहरन्त्येव। आज्यं घृतमेव रूढमिति। राजेश्च वक्तव्यम्राजः। तथा च राजस्यापत्यं राज्य इति, नैवं रूढित्वात् सिध्यति विशिष्ट एवासौ। अन्य आह– राजेऽसमासे इति गर्गादिषु पाठान्न गत्वमिति राजेर्घ्यण दृश्यते।।१३४३।
[वि०प०]
न कव०। उदाज इति। “समुदोरजः पशुषु'' (४।५।५१) इत्यस्याविषयत्वाद् भावे घञ्। तत्र घबल्क्यप्सु च न स्यादिति वचनादजेर्वीरादेशो न स्यात्। अत एव प्रतिषेधाद् वा। तथा आज्यमिति घ्यणि वीर्न भवति रूढत्वात्। वक्तव्यमिति। अभिधानादिति हेत: ।।१३४३।
[समीक्षा]
'कुजः, समाजः, परिव्राजः' आदि शब्दरूपों की सिद्धि के लिए दोनों ही व्याकरणों में 'क्-ग' आदेशों का निषेध किया गया है। अन्तर यह है कि कातन्त्रकार ने एक ही सूत्र द्वारा 'च' के 'क्' तथा 'ज्' के 'ग्' आदेश का निषेध किया है, परन्तु पाणिनि ने दो सूत्रों में 'च्-ज्' के कवर्गादेश का निषेध करके गौरव को ही आश्रय दिया है। पाणिनि के सूत्र हैं- "न क्वादेः, अजिव्रज्योश्च' (अ० ७।३।५९, ६०)! इस प्रकार कातन्त्र में उत्कर्ष कहा जा सकता है।
[रूपसिद्धि]
१-७. कुजः। कुज्+घञ्+सि। खर्जः। ख+घञ्-सि। गर्जः। ग+घञ्+सि। प्रव्राजः। प्रव्रज्+घञ्+सि। उदाजः। उद्+अज्+घञ्+सि। आज्यम्। अज्+घ्यण+सि। वयम्। वन्च्+घ्यण+सि। 'वयम्' में चकार को ककारादेश तथा शेष छह प्रयोगों में जकार को गकारादेश प्रकृत सूत्र द्वारा नहीं हुआ है।।१३४३।
१३४४. घ्यण्यावश्यके [४।६।५९] [सूत्रार्थ]
आवश्यक अर्थ में विहित घ्यण् प्रत्यय के परे रहते चकार को ककार तथा जकार को गकारादेश नहीं होता है।। १३४४।
[दु०वृ०]
अवश्यम्भावे गम्यमाने घ्यणि चजोः कगौ न भवतः। अवश्यपाच्यम्, अवश्यभोज्यम्। आवश्यक इति किम्? पाक्य ओदनः।।१३४४।
[कत०]
घ्यण्या०। "ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद् घ्यण'' (४।६।३५)इत्यनेन सामान्यत्वाद् यदावश्यके घ्यण् तदायं प्रतिषेधः।।१३४४।
[समीक्षा 'अवश्यपाच्यम्, अवश्यभोज्यम्' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ ककार-गकार