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________________ चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये षष्ठः क्त्वादिपादः ५४१ [वि०प०] यावति०। विन्देति। 'विद्ल लाभे' (५।९) इत्यस्यान्विकरणे मुचादित्वान्नकारागमे सति तिब्लोपं कृत्वा निर्देश:। अव्ययावपि यावत्तावच्छब्दौ स्त इत्याह-यावद् यावन्तं वेति।।१२९७। [क० त०] यावति। यावतीत्यविशेषनिर्देशादव्ययानव्यययोर्ग्रहणम्।।१२९७। [समीक्षा] ‘यावद्वेदम्, यावज्जीवम्' शब्दरूपों के सिद्धयर्थ कातन्त्रकार ने ‘णम्' प्रत्यय तथा पाणिनि ने ‘णमुल्' प्रत्यय किया है— “यावति विन्दजीवोः' (अ० ३।४।३०)। इस प्रकार पाणिनीय 'उ-ल' अनबन्धों के अतिरिक्त तो उभयत्र समानता ही है। [रूपसिद्धि] १. यावद्वेदं भुङ्क्ते। यावत्+विद्+णम्+अम्। यावद् यावन्तं वा लभते तावत् तावन्तं वा भुङ्क्ते। ‘यावत्' शब्द के उपपद में रहने पर 'विद्ल लाभे' (५।९) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा ‘णम्' प्रत्यय, 'ण' अनुबन्ध का प्रयोगाभाव, धातुगत उपधा को गुण तथा विभक्तिकार्य। २. यावज्जीवमधीते। यावत्+जीव+णम्+सि। यावज्जीवति तावद् अधीते। ‘यावत्' शब्द के उपपद में रहने पर ‘जीव प्राणधारणे' (१।१९२) धातु से ‘णम्' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य।।१२९७। १२९८. चर्मोदरयोः पूरेः [४।६।१३] [सूत्रार्थ कर्मकारकान्त 'चर्म-उदर' शब्दों के उपपद में रहने पर 'पूरि' धातु से ‘णम्' प्रत्यय होता है।।१२९८॥ [दु०वृ०] पूरिरिनन्त: सकर्मकः। चर्मोदरयोः कर्मणोरुपपदयोः पूरयतेर्णम् भवति। चर्मपूरं ददाति, उदरपूरं भुङ्क्ते।।१२९८। [दु० टी०] चर्मो०। पूरिरिति इनन्तस्येदं ग्रहणम्, कथमनिनन्तस्याकर्मकत्वादित्याहपूरयतेरित्यादि।।१२९८॥ [क० त०] चर्म०। भुक्त्वा उदरं पूरयति तथापि परकालविवक्षा भुजेलौकिकीति कश्चित्। वस्तुतस्तु उदरैकदेशपूरणानन्तरमपि भोजनं प्रवर्तते, तदपेक्षया पूर्वकालता।।१२९८।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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