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चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये तृतीयः कर्मादिपादः ४. दिक् । दिश् + क्विप् + सि । दिशति ताम् । “दिश अतिसर्जने ' (५।३) धातु से कर्म में क्विप् प्रत्यय, सर्वापहारी लोप तथा विभक्तिकार्य
५. उष्णिक् । ऊर्ध्व +स्निह् + क्विप् + सि । ऊर्ध्वं स्निह्यति । 'उद् ' शब्द के उपपद में रहने पर 'ष्णिह प्रीतौ '(३/४० ) धातु से क्विप् प्रत्यय, सर्वापहारी लोप, निपातन से उद् -घटित दकारका लोप, सकार को षकार, लिङ्गसंज्ञा, सि-प्रत्यय, सिलोप तथा “चवर्गदृगादीनां च” (२।३।४८) से हकार को गकारादेश ।। १०७८ । १०७९- सत्सूद्विषद्रुहदुहयुजविदभिदछिदजिनीराजा
मुपसर्गेऽपि [४।३।७४] [सूत्रार्थ]
उपसर्ग के तथा उपसर्गभिन्न नाम के उपपद में रहने पर तथा न रहने पर भी ‘सद्, सू, द्विष् , द्रुह, दुह, युज्, विद्, भिद्, छिद्, जि, नी' तथा 'राज्' धातु से 'क्विप्' प्रत्यय होता है ।। १०७९ ।
[दु०वृ०]
एषामुपसर्गेऽनुपसर्गेऽपि नाम्न्युपपदे क्विब् भवति । उपसीदति - उपसत्, सत् , सभासत् । द्विषः साहचर्यात् सूरदादिः । प्रसूते- प्रसूः, सूः, अण्डसूः । विद्विट, द्विट, मित्रद्विट् । प्रध्रुक् , ध्रुक् , मित्रध्रुक् । प्रधुक्, धुक्, गोधुक् । प्रयुक्, युङ् , अश्वयुक् । संवित्, वित्, वेदवित् । लाभार्थान्न दृश्यते । प्रभित्, भित् , काष्ठभित् । प्रच्छित् , छित् , रज्जुच्छित् । अभिजित्, जित्, अरिजित्। प्रणी:, नी:, सेनानीः। विराट, राट्, गिरिराट्। प्रपञ्चार्थमिदम् ।। १०७९ ।
[क० च०]
सत्सू० । सूरदादिरिति प्रसवार्थस्यैव (३८१) सूधातोर्ग्रहणम्, न 'धू प्रेरणे' (५।१८) इति चौरादिकस्येत्यर्थः (तौदादिकस्य)। युङिति । “युजेरसमासे नुर्पुटि" (२।२।२८) इति नुरागमः ।। १०७९ ।
[समीक्षा]
'प्रसूः, गोधुक्, अभिजित् ' इत्यादि शब्दों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही आचार्यों ने समानसंख्यक १२ धातुएँ पढ़ी हैं तथा समान प्रत्यय=क्विप् भी किया है । पाणिनि का सूत्र है - "सत्सूद्विषद्रुहदुहयुजविदभिदच्छिदजिनीराजामुपसर्गेऽपि क्विप्' (अ० ३।२।६१)। यह ज्ञातव्य है कि कातन्त्रकार प्रत्येक के ३-३ रूप बनाते हैं । १- उपसर्ग के उपपद में रहने पर, २- नाम के उपपद में रहने पर तथा ३- केवल धातु से । जैसे-अभिजित्, जित्, अरिजित् इत्यादि । परन्तु पाणिनीय व्याख्याकार ‘राट' को छोड़कर अन्य धातुओं के स्वतन्त्र धातुनिष्पन्न रूप नहीं दिखाते, जबकि सूत्रार्थ के अनुसार दिखाए जाने चाहिए। अत: इस अंश के अतिरिक्त अन्य तो सर्वविध समानता ही कही जा सकती है ।