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कातन्त्रव्याकरणम्
[रूपसिद्धि
१. सुशर्मा। सु + शृ + मन् + सि। 'सु' उपसर्गपूर्वक 'शृ हिंसायाम्' (८।१५) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा ‘मन्' प्रत्यय, “नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणः” (३।५।१) से धातुघटित ऋकार को गुण-अर्, लिङ्गसज्ञा तथा विभक्तिकार्य।
२. प्रातरित्वा। प्रातर् + इण् + क्वनिप् + सि। 'प्रातर्' शब्द के उपपद में रहने पर 'इण गतौ' (२।१३) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'क्वनिप्', “धातोस्तोऽन्तः पानबन्धे" (४।१।३०) से तकारागम तथा विभक्तिकार्य।
३. विजावा। वि + जन् + वनिप् + सि। 'वि' उपसर्ग के उपपद में रहने पर ‘जनी प्रादुर्भावे' (१.५३१) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'वनिप्' प्रत्यय, “विड्वनोरा'' (४।१।७०) से धातुघटित नकार को आकार तथा विभक्तिकार्य।
४. रेट। रिश् + विच् + सि। 'रिश रुश हिंसायाम्' (५।५५) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'विच्' प्रत्यय, उसका सर्वापहारी लोप, धातुघटित इकार को गुण तथा विभक्तिकार्य ।।१०७२।। ___५. रोट् । रुश् + विच् + सि। 'रिश रुश हिंसायाम्' (५।५५) धातु से विच् प्रत्यय आदि. पूर्ववत् प्रक्रिया।।१०७२।
१०७३. क्विप् च [४।३।६८] [सूत्रार्थ] सभी धातुओं से 'क्विप्' प्रत्यय होता है।।१०७३। [दु० वृ०]
धातोः क्विम् च दृश्यते। उखायाः संसते - उखास्रत्। पर्णानि ध्वंसते पर्णध्वत्। दिव् - अक्षयूः। क्रुङ्, प्रत्यङ्, ऊ:, की:, गी:, धूः, लूः।।१०७३।
[दु० टी०]
क्विप्०। अक्षैर्दीव्यति, क्रुञ्चति, प्रत्यञ्चति, वयति, नयति, किरति, गिरति, लुनातीति।।१०७३।
[वि० प०]
क्विप्०। "स्रसिध्वसोश्च' (२।३।४५) इति अन्तस्य दकारः। ऊरिति। 'वे तन्तुसन्ताने' (२।६११) क्विप, यजादित्वात् सम्प्रसारणे "वः क्वौ" (४|११५३) इति दीर्घः। 'अव रक्ष पालने वा' (१।२०२), "श्रिव्यविमवि०'' (४।१।५७) इत्यादिना सर्वस्योट ।।१०७३।
[क० च०] क्विप० । धुर्वि धुरिति वृत्तौ पाठो नास्तीति टीकायां क्रमेण वाक्यदर्शनात्।।१०७३। [समीक्षा] 'उखास्रत्, पर्णध्वत्' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्धयर्थ 'क्विप्' प्रत्यय का विधान