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तृतीये आख्याताध्याये सप्तमः इडागमादिपादः दिहिर्दुहिर्मेहति-रोहतिर्वहि हिस्तु षष्ठो दहतिस्तथा लिहिः।
इमेऽनिटोऽष्टाविह युक्तसंशया गणेषु हान्ताः परिभज्य कीर्तिताः।। इति। तकारादेरन्यत्र सहेर्नित्यमिडागम:- सहिष्यते, असहिष्ट।।८१२। [वि० प०] दहि०। रिहिलुही यथाक्रमं हिंसागत्यर्थयोर्वतेते इति।।८१२। [समीक्षा द्रष्टव्य समीक्षा - सूत्र सं० ७९५। [रूपसिद्धि]
१. दग्धा। दह् + ता। 'दह भस्मीकरणे' (१।२४३) धातु से श्वस्तनीविभक्तिसंज्ञक प्र० पु० - ए० व० 'ता' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से इडागम का निषेध, “दादेर्घः" (३।६।५७) से धातुघटित हकार को घकार, “घढधभेभ्यस्तथो|ऽध:' (३।८।३) से तकार को धकार तथा “धुटां तृतीयश्चतुर्थेषु' (३।८।८) से घकार को गकारादेश।
२-३. देग्धा। दिह् + ता। "नामिनश्चोपधाया लघोः” (३।५।२) से उपधासंज्ञक इकार को गुण-एकार। दोग्धा। दुह् + ता।
४. मेढा। मिह + ता। “हो ढः' (३।६।५६) से हकार को ढकार, तकार को धकार, “तवर्गस्य षटवर्गाट्टवर्गः" (३।८।५) से धकार को ढकार तथा “ढे ढलोपो दीर्घश्चोपधायाः" (३।८।६) से पूर्ववर्ती ढकार का लोप।
___ ५-१०. रेढा। रिह् + ता। रोढा। रुह् + ता। लेढा। लिह + ता। लोढा। लुह + ता। नद्धा। नह् + ता। वोढा। वह् + ता।।८१२।
८१३. ग्रहगुहोः सनि [३।७।३१] [सूत्रार्थ
'सन्' प्रत्यय के परे रहते ‘ग्रह - गुह्' धातुओं से उत्तर में इडागम नहीं होता है।।८१३।
[दु० वृ०] ग्रहगुहोः सनि नेड् भवति। ग्रह-जिघृक्षति। गुहू-जुघुक्षति।।८१३। [दु० टी०] ग्रह०। ग्रहेर्नित्यमिटि प्राप्ते गुहेरूदनुबन्धत्वाद् विकल्पे प्राप्ते वचनम् ॥८१३। [वि० प०]
ग्रह ०। “अहिस्वपिप्रच्छां सनि'' (३।४।९) इति ग्रहेः संप्रसारणम् "तृतीयादेर्घढधभान्तस्य" (३।६।१००) इत्यादिना आदिचतुर्थत्वम् ।।८१३।
[समीक्षा]
'जिघृक्षति, जुघुक्षति' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ इडागम का निषेध दोनों व्याकरणों में किया गया है। पाणिनि का सूत्र है - "सनि ग्रहगुहोश्च' (अ० ७।२।१२)।