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विषयानुक्रमणिका
कृत्रिमपत्रिपङ्क्ते:' में माघ कवि का स्खलन, कृत् -तद्धित-समास की अभिधानलक्षणता'अभिधान-लक्षणा हि कृत्तद्धितसमासाः । रुदादि पाँच धातुओं का गण -
रोदितिः स्वपितिश्चैव श्वसितिः प्राणितिस्तथा ।
जक्षितिश्चैव विज्ञेयो रुदादिः पञ्चको गणः ।। वैचित्र्यार्थ या नियमार्थ भिन्न योग का आश्रयण, वाक्यकार की प्रामाणिकता, वाक्यकारभाष्यकार का दर्शन, व्याप्त्यर्थ 'अन्त' शब्द का सूत्र में पाठ, शर्ववर्मा के द्वारा “स्वरतिसृति०'' इत्यादि सूत्र में 'धूञ्' पाठ का अनादर तथा लक्ष्यानुरोध से विभाषा की सिद्धि] २०. इडागम का निषेध
३९६-४२७ | एकस्वरविशिष्ट आकारान्त धात् से, इवर्णान्त धातु से, उवर्णन्त धातु से, ऋकारान्त धातु से इडागम का निषेध । ‘पचादि पाँच-छकारान्त प्रच्छ्-युजादि पन्द्रहअदादि सोलह-राधादि ग्यारह-हन् आदि दो-आप् आदि ग्यारह-यम् आदि चार रिश् आदि दश-द्विष आदि ग्यारह-वस् आदि दो-दह आदि दश-ग्रहादि दो-उवर्णान्त' धातुओं से इडागम का निषेध, इवन्तादि-धातुओं से वैकल्पिक इडागम, 'भू-सृ आदि-ऋकारान्त-कृ' धातु से इडागम का निषेध, तथा 'संस्कर्ता' आदि में सुडागम । 'सुखप्रतिपत्त्यर्थइष्टविषयार्थ-मन्दमतिबोधार्थ-स्पष्टार्थ- योविभागार्थ-उत्तरार्थ-प्रतिपत्तिगौरवनिरासार्थप्रकृतिनियमनिरासार्थ-स्पष्टार्थ-उच्चारणार्थ' अनेक कार्यों की सिद्धि, ‘एके-केचित् -वृत्तिकारगुरु-पञ्जीकार-भाष्यकार-अन्ये-गणकार-परे' आदि आचार्यों के विशिष्ट अभिमत, वृत्करण से गणपठित धातुओं की निश्चित संख्या, 'अपि' शब्द का प्रयोग पादपूरणार्थ, 'रिहि-लुहि' सौत्र धातुएँ, समुच्चयमात्र के लिए चकार का पाठ, अप्राप्त विभाषा की चर्चा, मण्डकप्लुतिअधिकार की आवश्यकता, मन्दबुद्धिवालों के भी उद्देश्य से कुछ वक्तव्य, सूत्रों में अध्याहार करना अत्यन्त आवश्यक होता है - 'सोपस्काराणि सूत्राणि । सवाक्याध्याहाराणीत्यर्थ:' तथा लोकव्यवहार से शब्दसिद्धि |
अष्टमो धुडादिपादः (सूत्रसंख्या-३५, २१. प्रथम वर्ण-विसर्ग-घ्-क्-टवर्ग-दीर्घ आदि आदेश ४२८- ५१
[ षण्मुखानि' इत्यादि में प्रथम वर्णादेश, ‘पचाव:' इत्यादि में विसर्गादेश, ‘अदुग्ध' इत्यादि में धकारादेश, ‘पेक्ष्यति' इत्यादि में ककारादेश, 'द्वेष्टि' इत्यादि में टवर्गादेश, 'मूढः' इत्यादि में दीर्घ, ‘लब्धा' इत्यादि में तृतीय वर्णादेश. 'बभृज्जे' इत्यादि में जकार को द्वित्व, ‘पचामि' इत्यादि में दीर्घ, 'अचकात्' इत्यादि में तकारादेश । 'प्रतिपत्तिगौरवनिरासार्थउच्चारणार्थ-नियमार्थ-स्पष्टार्थ-उत्तरार्थ-सखार्थ-उपधात्वप्रतिपत्त्यर्थ अनेक' कार्यों की सिद्धि।
४२८-४८८