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तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपादः
इत्यल्। ‘समज्या' इति ‘‘समजासनिसदिनिपतिशीसुविद्यटिचरिमनिभृञिणां संज्ञायाम्" (४।५/७६) इति क्यप् । युट्प्रत्यये च विभाषेति गुणोत्कर्षभावेन व्यवस्थितविभाषामाह-वैचित्र्यार्थम् ।। ६३० । [वि० प० ]
अजे०। घञित्यादि। ‘समाज:' इति भावे घञ् । 'उदज:' इति 'समुदोरज: पशुषु" (४।५। ५१) इत्यल्। 'समज्या' इति । 'समजासनि० " (४।५। ७६) इत्यादिना क्यप् ।। ६३० ।
[समीक्षा]
‘अज्' धातु से ‘अतुस्, उस्, अनीय, क्त, क्तवन्तु' आदि प्रत्ययों में 'विव्यतुः, वयनीयम्, वीतवान्' आदि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही आचार्यों ने सूत्र बनाए हैं। पाणिनि का सूत्र है "अजेर्व्यघञपो” (अ० २।४ । ५६ ) । पाणिनि ने 'अघञपो: ' शब्द का सूत्र में ही पाठ किया है, तदनुसार 'समाज, समज:' आदि शब्दों में 'वी' आदेश प्रवृत्त नहीं होता । कातन्त्रसूत्रकार ने सूत्र में यह पाठ नहीं किया है, अत: वृत्तिकार दुर्गसिंह ने वृत्ति में कहा है 'घञल्क्यप्सु च न स्यात्' । यह ज्ञातव्य है कि पाणिनि ने ‘क्यप्’ प्रत्यय का पाठ नहीं किया है, अतः वृत्तिकार को उसकी पूर्ति करनी पड़ी है 'घञोः प्रतिषेधे क्यप उपसंख्यानम्" (काशिका ० २।४।५६ - वा० ) । अतः 'समज्या' में भी विहित आदेश नहीं होता है।
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[विशेष वचन ]
१. वाधिकारादियमिष्टसिद्धि: (दु० वृ० ) ।
२. व्यवस्थितविभाषामाह - वैचित्र्यार्थम् (दु० टी० ) ।
[रूपसिद्धि]
१. विव्यतुः । अज् + परोक्षा - अतुस् । 'अज क्षेपणे च ' (१ |६४) धातु परोक्षाविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद - प्रथमपुरुष - द्विवचन 'अतुस्' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से 'अज्' को 'वी' आदेश, द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, ह्रस्व, "य इवर्णस्थासंयोगपूर्वस्यानेकाक्षरस्य” (३।४।५८) से अभ्याससंज्ञक वी - घटित ईकार को यकार तथा "रसकारयोर्विसृष्टः” (३।८।२) से सकार को विसर्गादेश ।
२. विव्युः । अज + परीक्षा - उस् । 'अज' धातु से परोक्षासंज्ञक प्रथमपुरुष - बहुवचन ‘उस्' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।
३. वयनीयम्। अज् + अनीय + सि। 'अज' धातु से 'अनीय' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से 'अज्' को 'वी' आदेश, गुण, अयादेश, 'वयनीय' की लिङ्गसंज्ञा तथां विभक्तिकार्य ।
४. वीतः । अज् + क्त सि। 'अज्' धातु से "निष्ठा" (४।३।९३) सूत्रद्वारा क्त-प्रत्यय, क्-अनुबन्ध का प्रयोगाभाव प्रकृत सूत्र से 'वी' आदेश, यण्वद्भाव, अगुण, लिङ्गसंज्ञा तथा विभक्तिकार्य ।