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तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपादः २.रुन्धन्ति। रुध् + न + अन्ति। 'रुधिर् आवरणे' (६।१) धातु से वर्तमानाविभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष-बहुवचन 'अन्ति' प्रत्यय, न-विकरण तथा प्रकृत सूत्र से न-विकरणघटित अकार का लोप।
३. भिन्तः। भिद् + न + तस्। 'भिदिर् विदारणे' (६।२) धातु से 'तस्' प्रत्यय, न–विकरण, अगुण, प्रकृत सूत्र द्वारा अन्तलोप, “अघोषेष्वशिटां प्रथम:' (३।८।९) से द् को त् तथा सकार का विसर्गादेश।
४. भिन्दन्ति। भिद् + न + अन्ति। 'भिदिर् विदारणे' (६।२) धातु से वर्तमानासंज्ञक 'अन्ति' प्रत्यय, न-विकरण तथा अन्तलोप।। ५७९ ।
५८०. अस्तेरादेः [३।४।४०] [सूत्रार्थ]
'अस्' धातु के आदि अवयव अकार का लोप होता है, अगुण सार्वधातुकसंज्ञक प्रत्यय के परे रहते।। ५८०।
[दु० वृ०]
अस्तेरादेरवयवस्य लोपो भवति अगुणे सार्वधातुके परे। स्तः, सन्ति। अगुण इति किम् ? अस्ति।। ५८०।
[दु० टी०] अस्ते० । तिब्–निर्देश: सुखार्थ एव।। ५८० । [समीक्षा]
'स्त:, सन्ति' आदि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ 'अस्' धातुघटित अकार के लोप की आवश्यकता होती है, इसकी पूर्ति दोनों ही व्याकरणों में देखी जाती है। अन्तर यह है कि कातन्त्रकार ने न-विकरण तथा अस् धातु में अकारलोप के लिए स्वतन्त्र दो सूत्र बनाए हैं, जबकि पाणिनि ने “श्नसोरल्लोप:' (अ० ६। ४। १११) इस एक ही सूत्र से कार्य सम्पन्न किया है। इस प्रकार यहाँ पाणिनिकृत लाघव स्पष्ट है।
[रूपसिद्धि]
१. स्तः। अस् + अन्–विकरणलुक् + तम्। 'अस् भुवि' (२।२८) धातु से वर्तमानासंज्ञक 'तस्' प्रत्यय, "अन् विकरण: कर्तरि' (३।२।३२) से अन् विकरण, "अदादेलुंग् विकरणस्य'' (३।४।९२) से उसका लुक्, प्रकृत सूत्र द्वारा अस्धातुघटित अकार का लोप तथा सकार को विसर्गादेश!
२. सन्ति। अस् + अन्–विकरणलुक् + अन्ति। 'अस् भुवि' (२।२८) धातु से 'अन्ति' प्रत्यय, अन् विकरण, उसका लुक्, अगुण तथा प्रकृत सूत्र द्वारा अस्-धातुगत अकार का लोप।। ५८० ।