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आदेश
विषयानुक्रमणी के अभ्यासान्तवर्ती अकार को अनुस्वारागम, सुखनिर्देशार्थ तपरकरण, ऋकारघटित धातु के अभ्यासान्त में अकार को 'री' आगम, कातन्त्रीय 'री' आगम के लिए पाणिनीय 'रीक्' आगम] २१. सन्वद्भाव-दीर्घ-अत्-अभ्यासलोपाधिकार-इस-ई-इत्-ईत्-दिगि
४०२-१९ [समानसंज्ञक वर्ण का लोप न होने पर अभ्यास को सन्वद्भाव, आधार होने पर ही जाति का निश्चय, साङ्ख्यसिद्धान्त का आश्रयण, कातन्त्रीय ‘चण्' के लिए पाणिनीय 'चङ्' प्रत्यय, 'त्वर' आदि धातुओं के अभ्यास को 'अत्' आदेश, गणपाठ में 'स्पश' धातु की मान्यता, विभाषाख्यापन के लिए चकार का पाठ, पाणिनीय १० धातुओं के लिए कातन्त्रीय त्वरादिगण, अभ्यासलोप का अधिकार, अभ्यास का पुनर्ग्रहण-समस्त अभ्यास के लोपार्थ,जातिपक्ष-व्यक्तिपक्ष का आश्रयण, पत्-पद्' आदि धातुओं के स्वर को 'इस्' आदेश-अभ्यासलोप, योगविभाग से इष्टसिद्धि, 'आप' धातुघटित स्वर को 'ई' आदेश-अभ्यासलोप, 'दन्भ्' धातुघटित स्वर को 'इत्-ईत्' आदेश-अभ्यासलोप, इच्छा के विना क्रिया का अभाव, देङ्' धातु को 'दिगि' आदेशअभ्यासलोप, 'तिप्' प्रत्यय से धातु का निर्देश, पाणिनि के अनुसार 'दीङ्' धातु को तथा कातन्त्रकार के अनुसार 'देङ्' धातु को 'दिगि' आदेश ]