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विषयानुक्रमणी
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ग्रहण, नपुंसकलिङ्ग में वर्तमान लिङ्गान्त्य स्वर वर्ण को ह्रस्व आदेश, यत्-तद् का नित्य सम्बन्ध, स्वरग्रहणसामर्थ्य से योगविभाग की संभावना ] |
पञ्चमः समासपादः
१५. समाससंज्ञा, विभक्तिलोप, प्रकृतिभाव, व्यञ्जनान्त लिङ्ग के सभी कार्य पृ० सं० २५३ - ८५
[ विद्वानों द्वारा समास - व्यास का अवधारण, समासशब्द का संक्षेप तथा व्यास शब्द का विस्तार अर्थ, समास - वाक्य की प्रक्रिया मन्दमति व्यक्तियों के अवबोधार्थ, समास के लिए एकार्थीभाव का प्रयोग, समासगत शब्दों की प्रधानमप्रधानता, समास के दो प्रकार से छह भेद, निरुक्त - बृहद्देवता - ऋक्प्रातिशाख्य-वाजसनेयिप्रातिशाख्यअथर्ववेदप्रातिशाख्य-ऋक्तन्त्र नाट्यशास्त्र आदि प्राचीन ग्रन्थों तथा मुग्धबोधव्याकरणजैनेन्द्र-शाकटायन-हैमव्याकरण - अग्निपुराण-नारदपुराण तथा शब्दशक्तिप्रकाशिका में समास का प्रयोग, संज्ञाविधि का नित्य-विकल्प - अनित्य होना, शब्द-अर्थ में वाच्यवाचकभाव सम्बन्ध, लोकप्रसिद्ध वाक्य से साध्य - साधन का अवबोध, वृत्ति का परार्थाभिधान, सुखार्थ ‘अर्थ' शब्द का उपादान, कृत्-तद्धितसमास का अभिधानलक्षण होना, समर्थ की परिभाषा, समास में प्रयुक्त 'सि' आदि विभक्तियों का लोप, विभक्तियों का अलुक् होना, आत्मनेपद-परस्मैपद-आत्मनेभाष-परस्मैभाष' शब्दों की यथाकथंचित् व्युत्पत्ति, शिष्टप्रयोग के अनुसार अन्यत्र अलुक्, स्वरान्तलिङ्ग का प्रकृतिभाव, विभक्ति - निमित्तक कार्यों का अभाव, सन्धिकार्यों का होना, अन्तशब्द का ग्रहण सुखपूर्वक अवबोधार्थ अर्थानुरोध से विभक्तियों का विपरिणाम, सकार-भकार के परे रहते जो कार्य बताए गए हैं, विभक्तिलोप हो जाने पर उन
सभी का सम्पन्न होना ] । १६. कर्मधारयसंज्ञा
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पृ० सं० २८५-३२० [विशेष्य-विशेषण पदों के समास की कर्मधारयसंज्ञा, कर्मशब्द की धर्मार्थपरता, बृहद्देवता - नाट्यशास्त्र में कर्मधारय का प्रयोग, जैनेन्द्र- शाकटायनहेमचन्द्र - मुग्धबोधव्याकरण-शब्दशक्तिप्रकाशिका -अग्निपुराण तथा नारदपुराण में कर्मधारय, गुण-द्रव्य का विशेष्यविशेषणभाव, वैयाकरणों की शब्दविषयक