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विषयानुक्रमणी
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४. सम्बुद्धिसंज्ञा
पृ० ३३ -३५ [आमन्त्रित अर्थ में विहित 'सि' प्रत्यय की संबुद्धि संज्ञा, आमन्त्रित का यौगिकत्व-योगरूढत्व, 'सिद्ध' शब्द के तीन अर्थ-नित्य, निष्पन्न और प्रसिद्ध, प्रसिद्ध अर्थ की ग्राह्यता एवं अविद्यमान का संबोधनाभाव] ५. उदनुबन्ध आगम
पृ० ३५-४० [अन्तिम स्वर से पर में तथा तृतीयादि विभक्तियों में परादि रूप आगम, प्रकृति-प्रत्यय का अनुपघाती आगम, ‘आगम-परिभाषा' शब्दों की व्युत्पत्ति, आगमविकार-आदेश-लोपविषयक आपिशलि आचार्य की परिभाषा] ६. अग्निसंज्ञा
पृ० ४०-४२ [पाणिनीय घिसंज्ञा, उसकी कृत्रिमता, अग्निसंज्ञा की अन्वर्थता, ‘अग्नि' संज्ञा के व्यवहार से अर्थावबोध की सहजगम्यता तथा 'घि' संज्ञा के प्रयोग से हस्तचेष्टावत् साङ्केतिक अर्थबोध] ७. नदीसंज्ञा
पृ० ४२ - ४६ [स्त्रीत्वबोधक ई-ऊवर्णों (प्रत्ययों ) की तथा पाणिनि के अनुसार ईकारान्तऊकारन्त शब्दों की नदीसंज्ञा, कुलविध्वंसिनी स्त्री के साथ कूलविध्वंसिनी नदी का साम्य, अनुगतार्थता न होने के कारण पाणिनि पर आक्षेप, मुग्धबोधव्याकरण में एकदेश 'दी' संज्ञा का प्रयोग] ८. श्रद्धासंज्ञा
पृ० ४६-४७ [नित्य स्त्रीलिङ्गवाची आकार की श्रद्धासंज्ञा, उसकी अन्वर्थता का अभाव, पाणिनि द्वारा संज्ञा का अभाव, सूत्रस्थ 'आख्या' शब्द के पाठ का विशेष फल] ९. उपधासंज्ञा
पृ० ४७-४९ [लिङ्ग या धातु के अन्तिम वर्ण से पूर्ववर्ती वर्ण की उपधासंज्ञा, उसकी अन्वर्थता, पूर्वाचार्यकृत व्यवहार, अर्वाचीन व्याकरणों में एतदर्थ 'ङ' संज्ञा]