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प्रास्ताविकम्
कातन्त्रवृत्तिटीका इसके भी रचयिता दुर्ग या दुर्गसिंह ही हैं । प्रतिज्ञावचन में कहा गया है -
शिवमेकमजं बुद्धमर्हदयं स्वयम्भुवम् ।
कातन्त्रवृत्तिटीकेयं नत्वा दुर्गेण रच्यते॥ इससे इनका बौद्धमतावलम्बी होना सिद्ध होता है । सामान्यतया वृत्तिकार और टीकाकार दुर्गसिंह को अभिन्न व्यक्ति नहीं माना जाता, क्योंकि टीकाकार दुर्गसिंह ने वृत्तिकार के लिए 'भगवान्' विशेषण का प्रयोग किया है - "इति भगवान् वृत्तिकारः श्लोकमेकं कृतवान् - देवदेवमित्यादि"। “देवदेवम्" इत्यादि श्लोक दुर्गसिंहद्वारा वृत्ति के प्रारम्भ में दिया गया है । अतः यहाँ वृत्तिकार पद से दुर्गसिंह का ग्रहण करने के कारण वृत्तिकार और टीकाकार में भेद माना जाता है, क्योंकि टीकाकार अपने ही लिए 'भगवान्' शब्द का व्यवहार कैसे करते ? ऐसा विचार वर्तमान समीक्षकों का है, परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि उक्त श्लोक दुर्गसिंह का नहीं, किं च उसे दुर्घटवृत्ति के प्रारम्भ में वररुचि ने कहा है । अतः वररुचि के लिए 'भगवान्' शब्द का व्यवहार मान लेने पर वृत्तिकार और टीकाकार में एकत्व स्थापित किया जा सकता है। टीका में वृत्ति के गूढ और प्रौढ अंशों को स्पष्ट किया गया है । विस्तार के लिए 'कातन्त्रव्याकरणविमर्शः' तथा 'संस्कृत के बौद्ध वैयाकरण' ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं |
श्रीगौतम पण्डित ने दुर्गसिंहवृत्ति पर कलापदीपिका, कुलचन्द्र ने दुर्गवाक्यप्रबोध, रामदासचक्रवर्ती ने कातन्त्रचन्द्रिका, गोवर्धन ने वृत्तिटिप्पणी, रामकिशोर ने मङ्गला, प्रबोधमूर्तिगणि ने दुर्गपदप्रबोध तथा गोल्हण ने दुर्गवृत्तिटिप्पणी की रचना की है।
इस टीका पर विजयानन्द ने एक कातन्त्रोत्तर (विद्यानन्द) नामक तथा विद्यासागर ने आख्यातमञ्जरी व्याख्या लिखी है । कृत्सूत्रों पर शिवराम शर्मा ने एक मञ्जरी नामक टीका, रघुनन्दन भट्टाचार्य शिरोमणि ने कलापतत्त्वार्णव तथा कृत्शिरोमणि की रचना की है।
___ कातन्त्रवृत्तिपञ्जिका दुर्गवृत्तिगत शब्दों के तात्पर्यार्थ का स्पष्टीकरण करने के लिए त्रिलोचनदास ने इसकी रचना की है । ग्रन्थारम्भ में मङ्गलाचरण करते हुए उन्होंने प्रतिज्ञा की है