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प्रास्ताविकम्
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है | अद्यावधि इसका मुद्रण नहीं हुआ है, केवल कारकप्रकरण .. मञ्जूषापत्रिका (व० १२, अं० ९) में छपा है । प्रतिज्ञावचन के अनुसार काव्यशास्त्र आदि में शिष्टजनों द्वारा प्रयुक्त सभी शब्दों का साधुत्व बताने के लिए दुनिया ने प्रयत्न किया है । उनका वचन इस प्रकार है -
महेश्वरं नमस्कृत्य कुमारं तदनन्तरम् । सुगमः क्रियतेऽस्माभिरयं कातन्त्रविस्तरः ॥ अभियोगपराः पूर्वे भाषायां यद् बभाषिरे ।
प्रायेण तदिहास्माभिः परित्यक्तं न किञ्चन ॥
इसके तात्पर्यार्थ को प्रकाशित करने के लिए वामदेव ने मनोरमा टीका लिखी थी । कातन्त्रविस्तर में टीकाकारों द्वारा किए गए आक्षेपों का समाधान रघुनाथदास ने वर्धमानप्रकाश नामक टीका में किया है । ग्रन्थारम्भ में नृसिंह से वाणी की सफलता चाहते हुए उन्होंने प्रतिज्ञा की है -
कातन्त्रविस्तराक्षेपनिगूढार्थ - प्रकाशनम् । कुरुते रघुनाथः श्रीवासुदेवाम्बिकासुतः ॥
वर्धमान के मतों और विचारों का एक व्याख्यान वर्धमानसंग्रह नामक श्रीकृष्ण आचार्य ने लिखा था | वर्धमान का अनुसारी एक ऐसा भी प्रक्रियाग्रन्थ प्राप्त होता है, जिसमें ग्रन्थकार का नामोल्लेख नहीं किया गया है । संभवतः इसी प्रक्रियाग्रन्थ के सार का संग्रह श्रीगोविन्ददास ने वर्धमानसारव्याकरण में किया है । इसके अन्त में कहा गया है -
उधृत्य वर्धमानस्य प्रक्रियायाः प्रयत्नतः । रचितं प्रक्रियासारं सर्वशास्त्रप्रयोगवत् ॥
२. व्याख्यासार
इस वृत्तिग्रन्थ की रचना हरिराम आचार्य ने की है । इसका चन्द्रिका भी नामान्तर मिलता है । यद्यपि यह वृत्ति सम्प्रति कारक - समास - तद्धित प्रकरणों पर उपलब्ध नहीं होती, तथापि अग्रिम आख्यात - कृत् प्रकरणों पर प्राप्त होने के कारण इन प्रकरणों पर भी उसे अवश्य ही लिखा गया होगा । इसमें कुछ सूत्रों की
गई है।
वचन इस प्रकार है
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