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प्रास्ताविकम् निरुक्तवृत्तिकार आदि को अभिन्न मान लेने पर इनकी दश रचनाएँ कही जा सकती हैं - १. निरुक्तवृत्ति या निरुक्तभाष्य । २. कातन्त्रवृत्ति (नामान्तर सिद्धान्तकौमुदी) । ३. कातन्त्रवृत्तिटीका । ४. कातन्त्रधातुपाठ । ५. कातन्त्रोणादिवृत्ति । ६. कातन्त्र - लिङ्गानुशासन । ७. कातन्त्रपरिभाषावृत्ति । ८. षट्कारककारिका | ९. कारकरत्न या षट्कारकरत्न तथा १०. कलापरत्न ।
वैदिक शब्दकोशात्मक निघण्टु में आए वैदिक शब्दों का महर्षि यास्क ने अपने निरुक्त में जो निर्वचन आदि किया है, वह संक्षिप्त होने के कारण सद्यः बोधगम्य नहीं हो पाता, दुर्गसिंह ने उस पर भाष्य या वृत्ति लिखकर उसे बोधगम्य बनाने का प्रयत्न किया है | प्रसङ्गतः विविध प्रकार की महत्त्वपूर्ण बातें भी कही हैं ।
कातन्त्रदुर्गवृत्ति का परिचय आचार्य शर्ववर्मा एवं वररुचि द्वारा रचित कातन्त्र के १४०० सूत्रों की यह प्रौढ व्याख्या है | इसमें पूर्ववर्ती अनेक शाब्दिक आचार्यों के मत उद्धृत हैं। चान्द्रव्याकरण का एक सूत्र "तादर्थ्य" (चा० २।१७९) भी दुर्गसिंह ने कातन्त्रव्याकरण में स्वीकार कर लिया है, जिससे कातन्त्रव्याकरण में सूत्रसंख्या १४०१ हो जाती है | व्याकरण की उपलब्ध अनेक वृत्तियों में से यही वृत्ति प्राचीनतम है । इसके प्रारम्भ में जो मङ्गलश्लोक दिया गया है, उसे वररुचि ने अपनी दुर्घटवृत्ति में पहले ही कहा है
देवदेवं प्रणम्यादौ सर्वज्ञं सर्वदर्शिनम् ।
कातन्त्रस्य प्रवक्ष्यामि व्याख्यानं शावर्मिकम्॥ किसी-किसी हस्तलेख में एक दूसरा भी श्लोक उपलब्ध होता है, जिसमें ओङ्काररूप देवविशेष को नमस्कार किया गया है
ॐकार बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः।
कामदं मोक्षदं देवमोकाराय नमो नमः॥ यह श्लोक दुर्गसिंहकर्तृक कहा जा सकता है । इस वृत्ति का अपर नाम सिद्धान्तकौमुदी भी मिलता है । (द्र०, A descriptive Catalogue of sanskrit manuscripts; Gujarata Vidyasabha, Ahmedabad, part II, 1964, pp. 734, Sr. No 2391)। इस वृत्ति पर अनेक आचार्यों ने टीकाएँ लिखी हैं ।