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कातन्त्रव्याकरणम्
कार । कुछ विद्वान् इन्हें अभिन्न भी मानते हैं । इनका समय ---- कता । इनका देश-कालादि-विस्तृत परिचय वृत्तिकारप्रकरण
- इसके अतिरिक्त संस्कृत के बौद्ध वैयाकरण (पृ० १५९
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कातन्त्रव्याकरण के वृत्तिकार मदार मानते हैं कि शर्बवर्मा ने ही सर्वप्रथम अपने व्याकरण की - (द्र० - व्या० द० इति०, पृ० ४३७)। इसमें अन्य प्रमाण प्राप्त र करमच का दायन ने दुर्घट नामक वृत्ति की रचना की थी।
लोक ग जाता है, जिसे दुर्गसिंह ने अपनी वृत्ति के
देवदेवं प्रणम्पादो सर्वशं सर्वदर्शिनम् ।
कातन्त्रस्य प्रवक्ष्यामि व्याख्यानं शार्ववर्मिकम् ॥
मार ने व्याख्यासार नामक व्याख्या में इसका स्पष्टीकरण किया है (व्या० ---- लचरण) । कविराज सुषेण विद्याभूषण ने भी कलापचन्द्र में उक्त श्लोक को बचत ही माना है | कविराज ने वररुचिवृत्ति के नाम से उसके अनेक अभिमत उद्धृत किए हैं, जिनसे असन्दिग्धरूप में यही कहा जा सकता है कि अर्बवर्म-चित सूत्रों पर वररुचि ने वृत्ति अवश्य ही बनाई थी | एक अभिमत इस प्रकार है -- "अर्थः पदमैन्द्राः, विभक्त्यन्तं पदमाहुरापिशलीयाः, सुप्तिङन्तं पदं पाणिनीयाः, इहार्थोपलब्धौ पदम् इति वररुचिः” (१।१।२०) । अन्य अभिमतों के लिए द्रष्टव्य और इस प्रकार है – १११।९, २३; ३।२।३८; ५। ८ । सम्प्रति ये दोनों ही वृत्तियाँ
व वृत्तियों में प्राचीन और प्रौढ दुर्गसिंहकृत वृत्ति है । वररुचि एवं दुर्गसिंह - मयकाल में भी अनेक वृत्तियों की रचना हुई होगी । दुर्गवृत्ति में
ब्दों से उद्धृत आचार्यमतों के बल पर ऐसा कहा जा सकता है । कार ने कहा है कि दुर्गवृत्ति की रचना वररुचिवृत्ति की रचना से ३००
ई थी – 'वाररुचिक वृत्तिर प्राय ३०० वत्सर परे दौगवृत्ति एवं काश्मीरे पनि रचित हइयाछे । वर्धमानेर कातन्त्रविस्तरवृत्ति चिच्छुवृत्तिर परवर्ती'
इति०, पृ० ३९५) ।