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प्रास्ताविकम्
३१ इस धातुपाठ के हस्तलेख जम्मू-श्रीनगर तथा वाराणसी में सुरक्षित हैं । इस धातुपाठ के अन्तर्गत अदादिगण में ह्वादि धातुओं को पढ़ दिए जाने से ९ ही धातुगण माने गए हैं। इन ९ गणों में २९ अन्तर्गण और २० अनुबन्ध हैं । मनोरमा टीका में लगभग ७६ विशेषताएँ देखी जाती हैं। विशेषताओं का विवरण कातन्त्रव्याकरणविमर्शः (पृ० १०९-२२) में द्रष्टव्य है |
कातन्त्रगणपाठ प्रातिपदिक (लिङ्ग-) पाठ के रूप में कलापव्याकरण का गणपाठ स्वतन्त्ररूप में उपलब्ध नहीं होता, तथापि "स्वस्रादीनां च, त्यदादीनाम विभक्तौ, मुहादीनां वा, बाहादेश्च विधीयते" (२।१।६९,३।२९,४९; ६।६) आदि सूत्रों में जिन गणों का नाम लिया गया है, उनके शब्द-समूह का विना निश्चय किए कोई भी आचार्य सूत्रों में निर्देश नहीं कर सकता । फलतः शर्ववर्मा ने जिन गणों का सूत्रों में निर्देश किया है, उनके शब्दसमूह का भी निश्चय अवश्य ही किया होगा । उनका निश्चय करने के बाद ही सूत्ररचना की होगी । वृत्ति-टीका आदि व्याख्यानों में गणपाठ दिया गया है। किन्हीं गणों की शब्दसंख्या में पर्याप्त विषमता है।
मैनें जो संग्रह किया है, उसमें अधिकतम शब्द आ गए हैं, जिन्हें परवर्ती आचार्यों ने अपनी ओर से भी जोड़ दिया है । गणों की कुल संख्या २९ है । कलापव्याकरण के गणों का निर्देश केवल ‘आदि' शब्द को जोड़कर किया गया है, जब कि पाणिनीयव्याकरण में आदि-प्रभृति और बहुवचनान्त शब्दों द्वारा । 'कपिलकादि-शिवादि-हरीतक्यादि' गणों को व्याख्याकारों ने दिखाया है, सूत्रकार ने नहीं । अतः उन गणों का संग्रह नहीं किया गया है, परन्तु कृत्प्रकरण के गणों का संग्रह इसलिए कर लिया गया है कि वररुचि कात्यायन-द्वारा प्रणीत कृद्भाग को दुर्गसिंह कातन्त्रव्याकरण से अभिन्न ही मानते हैं । गणों की यह संख्या शर्ववर्मा और आचार्य कात्यायन-द्वारा प्रणीत सूत्रों के अन्तर्गत समझनी चाहिए |
उणादिसूत्र उणादिसूत्रों से निष्पन्न होने वाले शब्द प्रायः संज्ञाशब्द होते हैं और वे प्रायः रूढ भी माने जाते हैं । अतः उणादि-प्रत्ययान्त शब्दों को व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न दोनों प्रकार का माना जाता है । महर्षि शाकटायन सभी शब्दों को व्युत्पन्न मानते थे, जबकि गार्ग्य किन्हीं शब्दों को अव्युत्पन्न भी स्वीकार करते थे । उणादि प्रत्यय