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प्रास्ताविकम् यजादेरुभयम्" (३ । २ । ३३, ३४, ३७, ३८, ४२, ४५)। इनमें दिवादि-प्रभृति धातुगणों का तथा 'ङ्-ञ्' अनुबन्धवाली धातुओं का निर्देश है। इससे यह कहा जा सकता है कि शर्ववर्मा ने धातुपाठ की रचना अवश्य ही की होगी और उसमें गणों तथा अनुबन्धों का निर्धारण भी अवश्य ही किया होगा । अपने धातुपाठ के अभाव में सूत्रपठित उक्त निर्देश सङ्गत नहीं हो सकते । पाणिनीय या काशकृत्स्नव्याकरण के धातुपाठ को आधार मानकर उक्त निर्देशों की सङ्गति नहीं लगाई जा सकती, क्योंकि उपलब्ध कातन्त्र-धातुपाठ की अपेक्षा पाणिनीय –काशकृत्स्न के धातुपाठ पर्याप्त भिन्न हैं | New Catalogus Catalogorum, Vol. IX में शर्ववर्मरचित धातुकोश नामक ग्रन्थ उद्धृत है, जिससे यह संभावना की जा सकती है कि दुर्गसिंह-द्वारा परिष्कृत धातुपाठ का यह आधार रहा होगा । धातुकोश का विवरण इस प्रकार है
___ "धातुकोश, by sarvavarman (C.P.B), catalogue of sanskrit & Prakrit mss. in the Central provinces and Berar Rayabahadura Hiralala, Nagpur 1926, No 7469".
धातुविषयक अनेक मत 'दुर्ग-दौर्ग' नामों से उद्धृत मिलते हैं । जैसे क्षीरस्वामी ने 'क्लेश' धातु पर कहा है कि 'क्लेश भाषणे इति चान्द्रं सूत्रम्, क्लेश बाधने इति दौर्गम्' (क्षीरत० १।६३७-३८)। 'मन्थ विलोडने' धातु को दुर्ग के मतानुसार स्वीकार्य कहा गया है - "अत्रायं धातुर्ययपि क्षीरस्वाम्यादिभिर्न पठ्यते, तथापि मैत्रेयचन्द्र-दुर्गः पठितत्वात् 'शमीगर्भादग्निं मन्थति' इत्यादिदर्शनाच्चास्त्येव" (मा० धा० वृ० १।३७) । इस प्रकार के अनेक उद्धरणों से दुर्गसिंह-द्वारा कलापधातुपाठ को परिष्कृत किया जाना प्रमाणित होता है । इसमें १३४७ धातुसूत्र तथा लगभग १८०० धातुएँ हैं।
धातुपाठ पर स्वयं आचार्य शर्ववर्मा ने कोई वृत्ति भी लिखी थी, इसमें कोई प्रामाणिक वचन प्राप्त नहीं होता । कातन्त्रैकदेशीय आचार्य वररुचि ने अवश्य ही इसका कोई व्याख्यान किया था । यह मनोरमाटीकाकार रमानाथ के एक वचन से ज्ञात होता है - "हस्ववान् अयम्, उतोऽयुरुनु० (३।७।१५) इत्यत्रास्यापि ग्रहणमिति कात्यायनव्याख्यानात्" (मनोरमा, णु स्तवने-तु० १०४) । शर्ववर्मा ने 'ज्वलादि, रधादि, ल्वादि' गणों का निर्देश सूत्रों में नहीं किया है, किन्तु कात्यायन ने इन्हें कृत्सूत्रों