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सन्धिप्रकरणे पञ्चमो विसर्जनीयपादः
है कि कातन्त्रकार ने 'कारस्कर' आदि शब्दों को संज्ञाशब्द मानकर उनके साधनार्थ सूत्र नहीं बनाए । अतः उनकी सिद्धि अन्य लोकप्रसिद्ध संज्ञाशब्दों की तरह समझ लेनी चाहिए । [रूपसिद्धि]
१ . कस्तरति । कः + तरति । तकार के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती विसर्ग को प्रकृत सूत्र - द्वारा सकारादेश ।
२. कस्थुडति । कः + थुडति । थकार के पर में रहने पर पूर्ववर्ती विसर्ग को सकारादेश || ६४।
६५. कखयोर्जिह्वामूलीयं नवा ( १/५/४ )
[सूत्रार्थ]
क ख वर्णों के परवर्ती होने पर विसर्ग के स्थान
२५१
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आदेश विकल्प से होता है ।। ६५ ।
जिह्वामूलीय (x)
[दु०वृ०]
विसर्जनीयः कखयोः परयोर्जिह्वामूलीयमापद्यते न वा । कx करोति, कः करोति । क x खनति, कः खनति ।। ६५ ।
[दु०टी०]
कखयोः । क x इति विदध्यात् । संज्ञापूर्वको व्यवहारः शिष्यावबोधार्थः । ककारस्यापि अत्राप्युच्चारणार्थत्वात् || ६५ ।
[समीक्षा]
‘कः + करोति, कः + खनति' इस अवस्था में दोनों ही व्याकरणों के अनुसार विसर्ग को जिह्वामूलीय आदेश होता है, परन्तु कातन्त्र व्याकरण में वज्र - सदृश आकृति (x) वाले वर्ण की जिह्वामूलीय संज्ञा की गई है - " क x इति जिह्वामूलीयः” (१।१।१७), और इसीलिए प्रकृत विधिसूत्र में भी जिह्वामूलीय पद पठित है । पाणिनि ने अपने व्याकरण में न तो जिह्वामूलीय संज्ञा ही की है और न विधिसूत्र “कुप्वोक पौ च " ( ८ | ३ | ३७ ) में उसका पाठ ही किया है | इस स्थल में अर्धविसर्गसदृश आकृतिवाले वर्ण का विधान किया जाता है ।