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सन्धिप्रकरणे चतुर्थी वर्गपादः
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[क० च०]
जझञ० | पदमध्य इति वृत्तिः । इदमेव ञकारविधानं पदमध्ये चटवर्गादेश इति ज्ञापयतीत्यर्थः । डढणपरस्त्वित्यादिवचनं च ज्ञापकम् उन्नेयम् । ननु “ तवर्गश्चटवर्गयोगे चटवर्गी” (२।४।४६) इति सूत्रमेकपदप्रस्तावे न क्रियताम्, किन्तु सामान्येन विधीयताम् । तदा तेनैव भवाञ्जयतीत्यादिकं भविष्यति, किमनेन ? नैवम् | यदि सामान्येन विधीयते तदा सूत्रत्रयं कर्तव्यं स्यात् । तथाहि 'भवाञ्शेते' इति सिद्ध्यर्थं “शे ञकारम्” (१।४।१२ ) इत्येकं सूत्रम्, स्वोदाहरणसिद्ध्यर्थं “तवर्गश्चटवर्गयोगे चटवर्गौ” (२।४।४६) इत्यस्त्येव, 'मधुलिट् तरति' इति सिद्ध्यर्थम् अपरमपीति । अन्यथा अत्रापि तवर्गस्य टवर्गः स्यादिति हेमकरः || ५७ |
[समीक्षा]
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‘भवान् + जयति, भवान् + झासयति, भवान् + ञकारेण, भवान् + शेते' इत्यादि स्थलों में कलापकार न् के स्थान में ञ् आदेश करके 'भवाञ्जयति, भवाञ्झासयति, भवाञ्ञकारेण, भवाञ्शेते' आदि रूप सिद्ध करते हैं । यहाँ पाणिनि ने श्चुत्व - विधान किया है - "स्तोः श्चुना श्चुः " ( ८ ।४ । ४० ) । ज्ञातव्य है कि चवर्ग के अन्तर्गत आने वाले 'च-छ- ज झ ञ' इन पाँचों वर्णों के परवर्ती होने पर पदान्तवर्ती नकार के स्थान में ञकारादेश के उदाहरण पाणिनीय व्याकरण में नहीं मिलते | अतः पाणिनीय निर्देश की अपेक्षा कलाप का निर्देश अधिक विशद कहा जा सकता है।
[विशेष ]
कलापव्याकरण के कारक - प्रकरण में एक सूत्र है - "तवर्गश्चटवर्गयोगे चटवर्गौ” ( २ । ४ । ४६ ) । इस सूत्र से चवर्ग के परवर्ती होने पर तवर्ग के स्थान में चवर्गादेश होता है । इसी के निर्देशानुसार ज, झ एवं त्र वर्णों के पर में रहने पर न् के स्थान में ञ् आदेश किया जा सकता है । यदि ऐसा स्वीकार कर लिया जाए तो फिर केवल शकार के परवर्ती होने पर ही नकार को नकारादेश करना अवशिष्ट रह जाता है । तदर्थ "शे ञकारम्" इतना ही सूत्र करना आवश्यक है ।
इस पर वृत्तिकार दुर्गसिंह ने समाधान दिया है - 'पदमध्ये चटवर्गादेश इति जझञशकारेषु ञकारविधानम्' (कात० वृ० १।४।१२ ) । अर्थात् कारक-प्रकरणीय्( २ । ४ । ४६ ) सूत्र की प्रवृत्ति पद के मध्य में होती है । मध्यवर्ती तवर्ग के स्थान में