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कातन्त्रव्याकरणम्
२०. 'यू- व्-अ' - लोपः
१६३-७१
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[पदान्तवर्ती ‘अय्-आय्-अव्-आव्' में ‘य्-व्' का वैकल्पिक लोप तथा स्वरसन्धि का अभाव, पदान्तस्थ ‘ए-ओ' से परवर्ती अकार का लोप, अयादिप्रभृति शब्दों की व्युत्पत्ति, 'कुलचन्द्र - शिवदेव ऋजु मूर्ख पञ्जीकार' आदि आचार्यों के अभिमत, सुहृदुपदेश की चर्चा, अनेक परिभाषावचनों का स्मरण, १० शब्दरूपों की सिद्धि]
२१. स्वरसन्ध्यभावपरिभाषा
१७१-७५
[व्यञ्जनवर्ण के पर में रहने पर स्वरवर्णों की सन्धि का अभाव, ननिर्दिष्ट विधि की अनित्यता, कुछ शब्दों की व्युत्पत्ति, मन्दबुद्धिवाले शिष्यों के अवबोधार्थ सूत्ररचना, सम्बद्ध न्यायवचनों का स्मरण] तृतीय ओदन्तपादः
१७६-१९२
२२. प्रकृतिभावसन्धिः
१७६-९२
[चार सूत्रों द्वारा ‘ओकारान्त-अ-इ-अ-आ-द्विवचनान्त - ई-ऊ-ए-बहुवचन - अमीप्लुत' में सन्ध्यभाव, नित्यशब्दार्थसम्बन्ध, अर्थभेद से 'आ' का सानुबन्धत्वनिरनुबन्धत्व, कुलचन्द्र आदि आचार्यों के अभिमत, अनेक परिभाषावचनों की व्याख्या, शब्दरूपसिद्धि, प्लुत वर्णों का द्विमात्रिकत्व ]
चतुर्थी वर्गादिपादः
२३. वर्गीयतृतीयपञ्चमवर्णादेशः
१९१-२४५
१९३-२०१
[पदान्तवर्ती वर्गीय प्रथम वर्णों के स्थान में 'तृतीय- पञ्चम' वर्णादेश, पाणिनीय प्रक्रिया का विवेचन, रांज्ञापूर्वक निर्देश की सुखार्थता, पाणिनीय निर्देश की गौरवाधायकता, विविध आचार्यों के अभिमत, अनेक परिभाषावचनों की योजना, विविध शब्दों की रूपसिद्धि ]
२४. शकारस्य छकारादेशः
. २०१-०५
[शकार के स्थान में वैकल्पिक छकारादेश, 'ल्- अनुनासिक' के भी पर में रहने पर छकारादेश की प्रवृत्ति, 'पर' शब्द का श्रुतिसुखार्थ पाठ, कुछ परिभाषावचनों की योजना, १२ शब्दों की रूपसिद्धि ]