________________
विषयानुक्रमणी
२.
५१-५४
प्रथमसूत्र- "सिद्धो वर्णसमाम्नायः" इत्यस्य व्याख्या
३०-४० समीक्षा
४०-४३ [कातन्त्रीय - पाणिनीय वर्णसमाम्नाय, पाणिनीय वर्णसमाम्नाय की कृत्रिमता तथा कातन्त्रीय वर्णसमाम्नाय की लोकप्रसिद्धिपरता, योगवाह-अयोगवाह, व्याकरण का सर्वपारिषदत्व, कातन्त्ररचना के प्रयोजन और रचयिता शर्ववर्मा, अक्षरसमाम्नाय की उपदेशपरम्परा तथा उसका महत्त्व, अहिर्बुध्यसंहिता, वशिष्ठशिक्षा आदि में वर्णपाठ] स्वरसंज्ञा
४३-५१ [१४ वर्गों की स्वरसंज्ञा, स्वरों के लिए 'अक्षर' तथा 'वर्ण' का व्यवहार,
दीर्घ लुकार की मान्यता, 'स्वर' शब्दार्थविचार, सूत्रभेद] ४. समानसंज्ञा
[समानसंज्ञा की अन्वर्थता, प्राचीनता, पाणिनीय व्याकरण में 'अक्' प्रत्याहार का व्यवहार] सवर्णसंज्ञा
५४-६० [समानसंज्ञक १० वर्णों की सवर्णसंज्ञा, सवर्णसंज्ञा की अन्वर्थता, पूर्वाचार्यों तथा अर्वाचीन आचार्यों द्वारा संज्ञा का व्यवहार] 'हस्व-दीर्घ' संज्ञे
६०-६६ [अन्वर्थता, पूर्वाचार्य - अर्वाचीन आचार्यों द्वारा व्यवहार, सज्जन पुरुषों के
स्नेह से तुलना, ह्रस्व – दीर्घ के लिए लघु-गुरु का प्रयोग] ७. 'नामि-सन्ध्यक्षर' संज्ञे
६६-७५ [अन्वर्थता, पाणिनीय व्याकरण में नामी के लिए ‘इच्' का तथा सन्ध्यक्षर के लिए 'एच' का प्रत्याहार का प्रयोग] व्यञ्जनसंज्ञा
७५-७८ [क् से क्षु तक के वर्णों की व्यञ्जन संज्ञा, ९ वर्ण की मान्यता, व्यञ्जन का स्वरानुयायी होना, पूर्वाचार्यों द्वारा प्रयोग]