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कातन्त्रव्याकरणम्
(३।६।५५) इति, तस्माद् वर्गः सवर्णेन सवर्ण इत्युच्यताम् इत्याह - तथा च इत्यादि । लोकोपचाराद् वर्गशब्दस्य कण्ठ्यत्वाद्यपेक्षया समुदायवाचित्वे सति समानो वर्णः सवर्ण इत्यन्वर्थे परस्परं सवर्णसंज्ञापि सिद्धेत्यर्थः ।
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ननु वर्गः पञ्चानां समूहः कथमेकस्मिन् वर्णे स्यादित्याह - प्रयोग इति । ननु तृतीयपञ्चग्रहणं किमर्थम् ? एकेन पञ्चशब्देन पञ्चवर्णघटितः समुदायो वक्ष्यते, अपरेण पञ्चशब्देन वीप्सार्थो लभ्यते ? सत्यम् । पञ्च पञ्चेत्युक्ते केवलं वीप्सैव प्रतिपाद्यते । यद्येवं पञ्च ते वर्गाः पञ्च इति क्रियताम्, तर्हि पुनः पञ्चग्रहणं सुखार्थम् ||१०| [समीक्षा]
कातन्त्रकार के अनुसार ' क ख ग घ ङ' वर्णों की कवर्ग, 'च छ ज झ ञ' की चवर्ग, 'ट ठ ड ढ ण' की टवर्ग, 'त थ द ध न' की तवर्ग तथा 'प फ ब भ म' की पवर्ग संज्ञा होती है । पाणिनि ने इन पाँचों वर्गों का व्यवहार
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“ अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः” (१ । १ । ६९) सूत्रस्थ 'उदित्' पद से किया है । तदनुसार 'कु' से कवर्ग, 'चु' से चवर्ग, 'टु' से टवर्ग, 'तु' से तवर्ग तथा 'पु' से 'पवर्ग’ का ग्रहण होता है | पाणिनि का यह व्यवहार सर्वथा कृत्रिम ही कहा जा सकता है, क्योंकि लोकव्यवहार की दृष्टि से यह अपरिचित ही है ।
पूर्वाचार्यों द्वारा भी वर्ग संज्ञा का प्रयोग किया गया है। जैसेऋक्प्रातिशाख्य – “पञ्च ते पञ्च वर्गा : " (१।८) ।
तैत्तिरीयप्रातिशाख्य – “स्पर्शानामानुपूर्व्येण पञ्च पञ्च वर्गाः” (१।१०) ।
वाजसनेयिप्रातिशाख्य में यह भी कहा गया है कि वर्ग में ५-५ वर्णों में से प्रथम वर्ण से वर्ग का बोध होता है, अन्य वर्णों से नहीं । जैसे- 'क ख ग घ ङ' इन पाँच वर्णों का बोध 'क' के ही साथ वर्ग लगाने से होता है, ख-ग-घङ में से किसी वर्ण के साथ वर्ग शब्द का व्यवहार नहीं होता है - " प्रथमग्रहणे वर्गम्” (१।६४) ।
ऋक्तन्त्र में वर्ग के लिए उसके एकदेश 'र्ग' का प्रयोग हुआ है - " स्पर्शे र्गस्य" (२।२।३) ।
काशकृत्स्नधातुव्याख्यान - "सतवर्गयोः शचवर्गयोगे, षटवर्गयोगे षटवर्गौ, ह्रस्वपूर्वयोर्हकारचवर्गयोः कवर्गः, कवर्गहकारयोश्चवर्ग:" (सू० १९, २०, ७२,
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