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२. डॉ० कपिलदेव द्विवेदी : अर्थ-विज्ञान और व्याकरण-दर्शन ।
३. डॉ० रामचन्द्र पाण्डेय : The Problem of Meaning in Indian Philosopby.
४. डॉ. सत्यकाम वर्मा : भाषातत्त्व और वाक्यपदीय ।
ये ग्रन्थ अपने विवेच्य विषय में भिन्नता रखते हुए भी शब्दार्थविज्ञान की विभिन्न समस्याओं पर सम्यक प्रकाश डालते हैं। इसी प्रकार पं० रंगनाथ पाठक का स्फोट-विषयक ग्रन्थ इसके मूल सिद्धान्त का विवेचन विशुद्ध भारतीय परम्परित ( Traditional ) रीति से करता है। अभी भी इस क्षेत्र में पर्याप्त कार्य का अवकाश है।
व्याकरण-दर्शन के अन्य क्षेत्र अभी तक प्रायः अस्पृष्ट हैं। इसके कई कारण हैं, जिनमें प्रमुख यह है
'चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि ।
काव्यादेव यतस्तेन... ... ....' ।। अतः शोधों की सुखसाध्यात्मकता जब से प्रकट हुई है तब से काव्य तथा काव्यशास्त्र का परिभ्रमण करनेवाले ही प्रबन्ध प्रकाश-पथ पर अग्रसर होते रहे हैं । दूसरी बात यह है कि व्याकरण का अध्ययन अत्यन्त श्रमसाध्य तथा नीरस है। अनेक वर्षों के श्रम से भी ग्रन्थों का अध्ययन पूरा नहीं होता। विशेषतः नव्य-व्याकरण के ग्रन्थ तथा उनकी टीकाएँ तो 'निसर्ग-दुर्बोध' हैं । उनका बोध होने पर भी अन्य शास्त्रों के साथ तारतम्य बैठाना तो और भी कठिन काम है। शास्त्रान्तर का अभ्यास किये बिना किसी शास्त्र में कुछ भी व्युत्पत्ति पाना असम्भव है । भर्तृहरि कहते हैं
__ 'प्रज्ञा विवेकं लभते भिन्नरागमदर्शनैः ।
कियद्वा शक्यमुन्नेतुं स्वतर्कमनुधावता' ||- वा० प० २।४८६ यह कठिनता यहीं समाप्त नहीं होती-नव्य-व्याकरण में प्राय: बिना स्रोत का निर्देश किये हुए ही दूसरे शास्त्रों की स्थापनाओं का अनुवाद करके उनका खण्डन हुआ है। उन स्रोतों का सम्यक् बोध हुए बिना उनका खण्डन समझना कठिन है । इन कारणों से कोई भी व्यक्ति साधना तथा तपस्या की अग्रभूमिस्वरूप व्याकरण तथा नव्य-न्याय के अनुसन्धान में अपने काल का अपव्यय करना नहीं चाहता । यही कारण है कि इन विषयों के ग्रन्थों का आद्यन्त अर्थ समझने वाले विद्वान् विरल हो चले हैं। यही स्थिति रही तो वह समय दूर नहीं जब ये ग्रन्थ सदा के लिए दुर्बोध हो जायेंगे, परम्परा का उच्छेद तो अभी ही हो चुका है । दुःख होता है कि भारतवर्ष अपनी शताब्दियों की उपाजित ज्ञानसम्पत्ति का विनाश गजनिमीलिका-न्याय से देख रहा है।