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क्रिया तथा कारक
५७ सभी नामार्थ संघटित रहें, तब उसमें वर्तमान सभी शब्दों को कारक क्यों नहीं कहा जा सकता ? 'श्रीगणेशाय नमः' में श्रीगणेश कारक क्यों नहीं है ? पुनः 'बालकेन सह धावति' में बालक, 'गृहं विना सुखं नास्ति' में गृह तथा 'शीघ्र चलति' में शीघ्र शब्द कारक क्यों नहीं माना जाता ?
वस्तुस्थिति यह है कि एक नामार्थ का दूसरे नामार्थ के साथ सम्बन्ध होना कारक नहीं है । यहाँ नामार्थ को व्यापक अर्थ में-क्रिया से भिन्न शब्द-मात्र के अर्थ में लिया जाता है, जिससे निपात, कर्मप्रवचनीय उपसर्ग आदि भी उसमें आ सकें। जब तक क्रिया का सम्बन्ध किसी नामार्थ के साथ न हो तब तक कारक की उत्पत्ति नहीं हो सकती । 'गुरुं नमस्करोति' में गुरु का सम्बन्ध नमस्कार-क्रिया से है, अतः इसमें कारक है; जबकि ठीक ऐसे ही अर्थ में 'गुरवे नमः' में क्रियापद के अभाव में गुरु में कारक नहीं है । ऐसे सम्बन्धों को उपपद-सम्बन्ध कहते हैं जहाँ नामार्थ का नामार्थ से सम्बन्ध हो ।
कारक-लक्षण कारक-शब्द का इसी अर्थ में पाणिनि से पूर्व भी प्रयोग होता रहा होगा। अथवा लोक में इसके अर्थ से लोग सम्यक प्रकार से परिचित होंगे। इसीलिए पाणिनि ने इस कारक-संज्ञा का कोई लक्षण न देकर इससे अधिकार-सूत्र निर्मित किया है—कारके ( १।४।२३ )। यद्यपि इससे कारक-प्रकरण का आरम्भ ज्ञात होता है, तथापि इसे सीमित अर्थों में संज्ञा-निर्देशक सूत्र भी माना जा सकता है, जैसा कि भाष्यकार स्वीकार करते हैं। व्याकरणशास्त्र में दो प्रकार के शब्दों के द्वारा पदार्थों का संकेत कराया जाता है-(१) लोक में अत्यन्त प्रसिद्ध शब्दों से तथा (२) स्वकल्पित टि, घु, भ आदि शब्दों से । प्रथम कोटि में आनेवाले शब्दों के लक्षण की आवश्यकता नहीं होती जब तक कि हम उन्हें शास्त्रीय अर्थ में कृत्रिम बनाकर ग्रहण न करें। द्वितीय कोटिवाले शब्दों का तो सर्वथा लक्षण ही देना ही चाहिए' । अष्टाध्यायी में अन्यत्र भी कारक-शब्द का प्रयोग होने से एक विशेष सन्दर्भ में इसका बोध होने के कारण इसे संज्ञा भी मानते हैं, जिसका अधिकार वहीं से आरम्भ होता है। तदनुसार पतंजलि को इसका लक्षण करना पड़ता है-'साधकं निर्वर्तकं कारकसंज्ञं भवति' । जो ( क्रिया का ) साधक हो, उसे सम्पादित करता हो उसे कारक कहते हैं। ___इस प्रसंग में यह आक्षेप किया गया है कि कारक यदि संज्ञा है तो इसके संज्ञी ( संज्ञा से बोध्य, लक्षण ) का निर्देश करना चाहिए अन्यथा निम्नरूपेण कई असंगतियां उठ खड़ी होंगी
१. 'इह हि व्याकरणे ये वा एते लोके प्रतीतपदार्थकाः शब्दास्तनिर्देशाः क्रियन्ते, या वा एताः कृत्रिमाष्टिघुभादिसंज्ञाः'। उद्योत- 'भादिसंज्ञाः इत्यस्य ताभिर्वेति शेषः।
-महाभाष्य २, पृ० २४०