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क्रिया तथा कारक
इसलिए कहा गया है कि अतीत काल वाली 'अपठत्' इत्यादि क्रियाओं का अन्तर्भाव हो सके । वर्तमान तथा भविष्यत् की क्रियाएँ तो असिद्ध हैं ही। तथापि 'नाम' से क्रिया का यही भेद है कि क्रिया कभी भी हुई हो या होनेवाली हो-सदा साध्य ही कहलाती है, कारकों के द्वारा उसकी सिद्धि होती है । इसका कारण यह है कि क्रिया में अवान्तर व्यापारों के क्रम का आश्रय लिया जाता है; नाम की अवस्था में वे क्रम समाप्त हो चुके होते हैं। इसका उदाहरण है-'ध्वनति' तथा 'ध्वनिः' । घण्टा बज रहा है ( ध्वनति )-यहाँ कार्य ध्वनि तथा कारण घण्टा है। दोनों के सम्बन्ध से क्रम का आश्रय लिया गया है। जब क्रम की निवृत्ति हो जाती है तब कहते हैं 'ध्वनिः' । यह नाम है । इसी प्रकार 'श्वेतते' ( श्वेतरूप में प्रकाशित हो रहा है )-ऐसा क्रियाप्रयोग होता है, किन्तु सिद्ध हो जाने पर उसका 'श्वेत-गुण' कर्तृरूप में भी व्यवहृत होता है-श्वेतः श्वेतते' ।
क्रम का आश्रय लेने से क्रिया के एकत्व में बाधा पहुँचने की आशंका होती है, अतः भर्तृहरि को इसके निवारणार्थ दूसरी कारिका देनी पड़ती है
'गुणभूतैरवयवः समूहः क्रमजन्मनाम् ।
बुध्या प्रकल्पिताभेवः क्रियेति व्यपदिश्यते' ॥ -वा०प० ३।८।४ ये क्रमवान् क्षण एक फल के उद्देश्य से प्रवृत्त होते हैं, अतएव संकलन-बुद्धि से उनके एकत्व की व्यवस्था करके क्रिया का व्यवहार होता है। क्रिया के सभी अवयव उसके एकत्व के प्रति गुणीभूत ( अप्रधान ) रहकर क्रम से जन्म लेते हैं । यही कारण है कि क्रिया की एकात्मकता सुरक्षित रहती है।
सत्ता-बोधक 'अस्ति' आदि क्रियाओं की ओर भी भर्तहरि की दृष्टि गयी है। यह सत्य है कि सत्ता नित्य, असाध्य तथा क्रमरहित ( एक ) है २ अर्थात् इस पर क्रिया का उपर्युक्त लक्षण नहीं लग सकता । इसीलिए वे कहते हैं
'कालानुपाति यद् रूपं तवस्तीत्यनुगम्यते । परितस्तु परिच्छिन्नं भाव इत्येव कथ्यते ॥
-वा०प० ३।८।१२ वस्तुस्थिति यह है कि अस्-धातु के ही 'आसीत्, अस्ति, भविष्यति' ये तीन रूप दिखलायी पड़ते हैं । काल के द्वारा अभिव्यंग्य होना द्रव्य का नहीं, प्रत्युत क्रिया का धर्म है। 'घट:' कहने से काल-विशेष का बोध नहीं होता, किन्तु 'अस्ति' में होता है। यदि किं करोति' का उत्तर 'अस्ति' के रूप में न मिले तो इसके क्रिया न होने की आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पतञ्जलि का उपर्युक्त विश्लेषण तो है ही, इसके अतिरिक्त जब किसी के विनाश की आशंका से प्रश्न किया जाय-'किं करोति
१. वा०प० ३।८२।
२. तुलनीय, वैशे० सू० १।२।१७–'सदिति लिङ्गाविशेषाद् विशेषलिङ्गाभावाच्चको भावः'।