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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
___ गदाधर यद्यपि 'दुग्धाद् दधि जायते, मृदो घटो जायते' प्रभृति उदाहरणों में समवायिकारण में ही प्रकृति की व्यवस्था करते हैं तथापि सिद्धान्ततः वे कहते हैं-'तस्माकारणत्वमेव प्रकृतित्वम्' । इसीलिए 'दण्डाद् घटो जायते' इत्यादि इष्ट-प्रयोग उपपन्न होते हैं, जहाँ दण्ड घट का निमित्त कारण है । यही स्थिति 'यतो द्रव्यं गुणाः कर्म तथा जातिः परापरा' में है, जहाँ 'यतः' का अर्थ 'ईश्वरात्' है । इनकी प्रकृति के रूप में ईश्वर निमित्त-कारणता का आश्रय लेकर सिद्ध है ।
प्रकृति का अर्थ उपादान कारण माननेवाले नागेश कहते हैं कि 'ब्रह्मणः प्रजाः प्रजायन्ते' से इस प्रकार बोध होता है- 'ब्रह्मापादानिका प्रजाकर्तृकोत्पत्तिः (प्रजा ब्रह्म से निकलती हुई उत्पन्न होती है )। निःसरण का अर्थ लोकव्यवहार पर अवलम्बित है, क्योंकि व्यवहार में वस्तु जिससे उत्पन्न होती है वह उसी से निर्गत के रूप में प्रयुक्त होती है । भाष्यकार के मत में यह व्यवहार उपादान कारण का ही विषय है । 'पुत्रात्प्रमोदो जायते' में प्रत्यक्षतः उपादान कारण नहीं है, किन्तु उपादानत्व का निर्वाह उसका आरोप करके नागेश करते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि 'प्रकृति' का मुख्य अर्थ हैं-समवायि या उपादान कारण, किन्तु आरोप के द्वारा हम दूसरे कारणों में भी इसका निर्वाह कर सकते हैं ( ल० म०, पृ० १२९७ ) ।
उपर्युक्त तथ्य की सिद्धि के लिए दूसरी युक्तियाँ भी दी गयी हैं। 'मृदो घटो जायते, तन्तुभ्यो वस्त्रं जायते, ब्रह्मणः प्रजाः प्रजायन्ते' इत्यादि में तो उपादान कारण में पञ्चमी है ही, क्योंकि 'वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्' ( छां० उ० ६।१।१ ) इस श्रुति-वाक्य में उपादान-कारण के रूप में मृत्तिका का दृष्टान्त देकर ब्रह्म उपादानकारणत्व का समर्थन है । इसीलिए 'यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते' ( तै० ० ३।१) इत्यादि वाक्य में प्रदर्शित प्रपञ्च का ब्रह्म में अभिसंवेश सिद्ध होता है; जैसे र का मृत्तिका में या पट का तन्तुओं में होता है। पुनः 'आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः' इस वाक्य में प्रजा का उपादान-कारण अन्न है, अन्न का वृष्टि और वृष्टि का आदित्य-यह पञ्चाग्नि-विद्या के ( छा० ४।९-१० ) अनुरोध से उपपन्न होता है। आदित्य यहाँ ज्योतिःस्वरूप है और यही ज्योति वृष्टि रूप में परिणत होती है, वृष्टि अन्न के रूप में और अन्न प्रजा के रूप में परिणत होता है।
कुछ लोग 'विभाषा गुणेऽस्त्रियाम्' ( २।३।२५ ) में विभाषा-शब्द का योगविभाग करके अगुणवाचक शब्द में ही हेतुपञ्चमी की सिद्धि करते हैं; जैसे-'धूमादग्न्यनूमितिर्जायते' । इसी आधार पर ये 'पुत्रात्प्रमोदो जायते' में भी पञ्चमी की सिद्धि करते हैं और पुत्र को प्रमोद का हेतु मानते हैं। किन्तु यह होने पर भी पञ्चमीविभक्ति ब्रह्म की निमित्तकारणता नहीं सिद्ध कर पाती । इसके अतिरिक्त 'तदक्षत बहु स्यां प्रजायेय' (छा० उ० ६।२।३-उसने कल्पना की कि मैं अनेक रूपों में जन्म लू)
१. द्रष्टव्य-भाष्य २, पृ० २५४-५५ पर रघुनाथ शास्त्री की पादटिप्पणी।