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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन जैसी सरल तथा ऋजु भाषा का प्रयोग प्रवचन-काल में करता है वही भाषा हमें पतञ्जलि में मिलती है। इनका भाष्य प्रायः समान परिमाण के आह्निकों में विभक्त है।
प्रथमाध्याय चतुर्थ पाद का तृतीयाह्निक कारकमात्र का विचार करता है। इसीलिए इसे कारकाह्निक कहते हैं । यद्यपि इसमें सभी कारकसूत्रों पर विचार नहीं किया गया है तथापि जितने सूत्र भी व्याख्यात हुए हैं वे पर्याप्त दार्शनिक विवेचन से परिपूर्ण हैं । सम्प्रति कारक-विषयक पाणिनि के ३३ सूत्रों में से केवल २० पर भाष्य उपलब्ध है । अपादान-संज्ञा का विधान करने वाले सभी सूत्र व्याख्यात हुए हैं, किन्तु सम्प्रदान के विधायक सूत्रों में प्रथम सूत्र के अतिरिक्त केवल एक ही सूत्र भाष्य में स्थान पा सका है। अपादान में बहुत यत्न से पतंजलि ने प्रमुख सूत्रों के अन्तर्गत ही सभी योगों की व्याख्या की है तथा अन्य सूत्रों से निर्दिष्ट योगों को बौद्ध ( बुद्धिस्थ ) अपाय के अन्तर्गत रखा है। 'कारके' तथा 'अकथितं च' की व्याख्या अपेक्षाकृत लम्बी है, जिनमें क्रमशः ४ तथा ५ अधिकरणों के अन्तर्गत विषय-विचार सम्पन्न हुआ है।
कारक तथा विभक्ति का पृथक् निरूपण इन कारकों को अभिव्यक्त करने वाली विभक्तियों का विचार भाष्य में द्वितीयाध्याय के तृतीय पाद में हुआ है । इसमें तीन आह्निक हैं । इनमें ४३ सूत्रों तथा ९५ वार्तिकों की व्याख्या हुई है । विभक्त्यर्थ-विचार वाले इस पाद में भाष्यकार ने सूत्रवार्तिक की व्याख्या के अतिरिक्त भी तात्कालिक विभक्ति-प्रयोग दिखलाये हैं। विशेषतः 'अनभिहित' शब्द के विवेचन में स्वतंत्र रूप से भाष्यकार ने व्याकरणविषयक अनेक सूचनाएँ दी हैं।
इन तीन आचार्यों को पाणिनितन्त्र में 'त्रिमुनि' के द्वारा अभिहित किया गया है। कभी-कभी तो त्रिमुनि तथा व्याकरणशास्त्र को अभिन्न रखकर 'त्रिमुनिव्याकरणम' तक कहा जाता है। इसका कारण यह है कि इन तीनों ने मिलकर इस सम्प्रदाय के उपजीव्य ग्रन्थों का निर्माण किया, जिन पर अन्यान्य विद्वानों ने अपनीअपनी टीकाएँ लिखीं अथवा जिन्हें आधार बनाकर दूसरे ग्रन्थ लिखे। पतंजलि के समय में ही संस्कृत भाषा शिष्टमात्र की भाषा रह गयी थी, लोक में प्राकृतों का प्रयोग होने लगा था। शिष्टों की भाषा में परिवर्तन का अल्प अवकाश था, क्योंकि ये उच्चारण, साधु-प्रयोग इत्यादि पर बहुत अधिक ध्यान देकर भाषा की एकरूपता
१. युधिष्ठिर मीमांसक ने महाभाष्य के लुप्त होने का सिद्धान्त भर्तहरि ( वा० प० २।४८२-३ ) के प्रामाण्य पर स्वीकार किया है। इसका उद्धार बड़े प्रयत्न से चन्द्राचार्य ने किया था। सम्भव है इसी क्रम में अन्य सूत्रों की व्याख्या लुप्त हो गयी हो। अन्य भाष्यकारों के समान पतंजलि ने भी सभी सूत्रों पर भाष्य किया होगा, ऐसा प्रतीत होता है।