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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन अभिलाषा का कर्ता मोदक है। देवदत्त प्रीयमाण है, क्योंकि तथोक्त अभिलाषा के कर्ता के द्वारा उसे ही तृप्ति या प्रसन्नता मिलती है।
भर्तृहरि तथा हेलाराज यहाँ दूसरी प्रक्रिया आरम्भ करते हैं। अन्यकर्तक अभिलाषा को रुचि कहते हैं, इसलिए अभिलाषा के विषयीभूत मोदक का प्रयोग देवदत्त कर रहा है-यही अर्थ निकलता है । दूसरे शब्दों में -अपनी चंचलता से तदनुकूल ( मिठाई पाने की दिशा में ) आचरण करता है, तभी तो लोग उक्त प्रयोग करते हैं । फलतः प्रयोजक देवदत्त को हेतुसंज्ञा प्राप्त होने लगती है, जिसके स्थान पर सम्प्रदानसंज्ञा होती है । हेतुसंज्ञा के अभाव में णिच्-प्रत्यय भी नहीं लगता तथा हेतु से समवेत दूसरी क्रिया की प्रतीति भी नहीं होती। अतएव मोदक अपनी धातुवाच्य क्रिया का कर्ता बनता है, कर्म नहीं ( हेलाराज ३, पृ० ३३३ )। जैसे 'हरिः भृत्यं गमयति' इस वाक्य में णिच् के अभाव में भृत्य गमन-क्रिया का कर्ता ही रहता है --'भृत्यः गच्छति' । 'रोचते' का अर्थ है-अभिलाषा का विषय बनता है।
जब 'देवदत्ताय रोचते मोदकः' का अर्थ होता है 'देवदत्तं मोदकः प्रीणयति', जैसा कि 'प्रीयमाण' विशेषण से प्रकट होता है, तब कर्मसंज्ञा के स्थान में सम्प्रदान-संज्ञा होने के लिए प्रस्तुत सूत्र का आरम्भ मानना चाहिए । रुच् अकर्मक धातु है, इसके प्रयोग में कर्मसंज्ञा का आना असंगत प्रतीत हो सकता है, किन्तु धातु की अर्थान्तर में वृत्ति होने पर सकर्मकता होती है ( 'धातोरर्थान्तरे हि वृत्तौ सकर्मकत्वम्'-हेलाराज, पृ० ३३४ ); इसमें कोई संदेह नहीं । अतः 'प्रीणयति' के अर्थ में 'रोचते' का उपयोग करने पर सकर्मकता होगी और तब कर्मसंज्ञा होने पर उसे सम्प्रदान में बदलने की बात निर्मूल नहीं लगेगी।
इस सूत्र का तीसरा प्रयोजन शेषत्व के स्थान में सम्प्रदान का विधान करना भी है । जब देवदत्त की अभिलाषा देवदत्त-विषयक बन जाती है, ऐसा अर्थ लिया जाय तब शेष के कारण षष्ठी की प्राप्ति होगी। ऐसी स्थिति में सम्प्रदान होगा-यह भी सूत्र का लक्ष्य है। दूसरे शब्दों में विशेष विवक्षा के अभाव में केवल क्रिया के निमित्त के रूप में सामान्यतया ग्रहण करने पर शेष षष्ठी की प्राप्ति हो रही थी। अतएव हेतुसंज्ञा, कर्मसंज्ञा तथा शेषलक्षण षष्ठी-इन तीन अनिष्ट प्रसंगों के वारणार्थ प्रस्तुत सूत्र का अवतारण हुआ है कि देवदत्तादि को सम्प्रदान-संज्ञा ही हो । ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार उक्त तीन संज्ञाओं के स्थान में सम्प्रदान होता है उसी प्रकार अधिकरणादि के स्थान में यह नहीं हो सकता। इसीलिए 'प्रीयमाण' का प्रयोजन बतलाते हुए जयादित्य तथा दीक्षित प्रत्युदाहरण देते हैं-'देवदत्ताय रोचते मोदकः
१. 'यदा तु देवदत्तस्य योऽभिलाषस्तद्विषयो भवतीत्यर्थस्तदा शेषत्वात्षष्ठयां प्राप्तायां वचनमिति'।
-श० कौ० २, पृ० १२३ द्रष्टव्य-हेलाराज ( ३।७।१३० पर)। २. 'हेतुत्वे कर्मसंज्ञायां शेषत्वे वापि कारकम् ।
रुच्यर्थादिषु शास्त्रेण सम्प्रदानाख्यमुच्यते' ।