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'भेदाभेदविवक्षा च स्वभावेन व्यवस्थिता ।
तस्मात् गत्यर्थकर्मत्वे व्यभिचारो न दृश्यते ॥ - वा० प० ३।७।१३३ प्रसिद्ध लौकिक प्रयोगों के समर्थन के लिए व्याकरणशास्त्र उपाय की परिकल्पना करता है । अतएव इन प्रयोगों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भेद और अभेद की विवक्षा नियत है । 'पत्ये शेते' में केवल भेद की विवक्षा है तो 'ओदनं पचति' में केवल अभेद की। यदि 'ओदनाय पचति' प्रयोग होता तो हम विवक्षा को यादृच्छिक मान सकते थे, किन्तु ऐसा होता नहीं। अतः लौकिक प्रयोग का आधार लेने से विवक्षा भी नियत-विषय या असार्वत्रिक मानी जाती है। इसीलिए गत्यर्थक धातुओं के साथ उभयविध प्रयोग ( कर्म तथा सम्प्रदान में ) देखकर ( ग्रामं ग्रामाय वा गच्छति ) भेद
और अभेद दोनों की वैकल्पिक विवक्षा मानने में उक्त नियम का ( कि विवक्षा नियतविषय है ) उल्लंघन नहीं होता।
पतञ्जलि के प्रामाण्य पर इस समस्त मान्यता की पुष्टि भर्तृहरि को अभीष्ट है
__ 'विकल्पेनैव सर्वत्र संज्ञे स्याताम्मे यदि ।
आरम्भेण न योगस्य प्रत्याख्यानं समं भवेत् ॥ -वा० प० ३।७।१३४ यदि सर्वत्र विकल्प से ही दोनों संज्ञाएँ ( कर्म तथा सम्प्रदान ) हुआ करतीं, तो भाष्यकार 'गत्यर्थकर्मणि' (२।३।१२ ) सूत्र को आरम्भ करके इसके साथ ही उसका प्रत्याख्यान नहीं करते, क्योंकि इसमें अतिप्रसंग होता। भला अवांछित पदार्थ का निरर्थक विस्तार करने से क्या लाभ है ? किन्तु भाष्यकार के मन में विवक्षा का नियम व्यक्त करने का उद्देश्य था। इसलिए आरम्भ तथा प्रत्याख्यान में कोई अन्तर न मानते हुए ही वे इसका खंडन करते हैं, जो युक्तिसंगत है। फलतः उपर्युक्त प्रकार से प्रयोगों में भेद और अभेद की नियत विवक्षा होती है। चेष्टा का बोध नहीं होने पर या अध्ववाचक शब्द रहने पर जो केवल द्वितीया होती है वह भी अभेद-विवक्षा के ही अन्तर्गत है—'मनसा पाटलिपुत्रं गच्छति, अध्वानं गच्छति' । यही स्थिति 'स्त्रियं गच्छति', 'अजां नयति' इत्यादि उदाहरणों की है, जो असम्प्राप्त कर्म के रूप में गत्यर्थ कर्म की व्याख्या करने से समर्थित होते हैं । इसके अनुसार गत्यर्थक धातुओं के कर्म का अर्थ है कि जो गमन-क्रिया के द्वारा अभी तक सम्प्राप्त नहीं हुआ है किन्तु सम्प्राप्त होगा । स्त्री तथा अजा सम्प्राप्त कर्म हैं, क्योंकि इन्हें कर्ता पहले ही प्राप्त कर चुका है । चेष्टा होने पर भी इसीलिए यहाँ चतुर्थी की प्राप्ति नहीं होती। सम्प्राप्त तथा असम्प्राप्त कर्मों का विभाजन वास्तव में कर्म तथा सम्प्रदान का एक महत्त्वपूर्ण व्यावर्तक तत्त्व है। इसकी प्रतीति हमें तथाकथित वैकल्पिक उदाहरणों में भी होती है । तदनुसार 'गामं गच्छति' में गति के साथ लक्ष्य की सम्प्राप्ति का भी अर्थ रहता १. 'असम्प्राप्तं यद्वस्तु गमनेन सम्प्रेप्स्यते तस्मिन् कर्मणीत्यर्थः'।
-प्रदीप ( कैयट ), पृ० ४९६