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करण-कारक
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किन्तु करण को इस रूप में ( चरम कारण ) स्वीकार करना भवानन्द को अभिप्रेत नहीं है, अतः वे उपर्युक्त लक्षण की व्याख्या करने के बाद भी अपना पक्ष एक अन्य लक्षण के साथ रखते हैं - 'व्यापारवत्कारणं करणम्' । व्यापार से युक्त कारण करण है । चरम कारणवाले पक्ष में हस्त, कुठारादि में गौणरूप से करणत्व-प्रयोग हो सकता है, क्योंकि ये प्रकृष्ट या चरम कारण तो हैं नहीं । किन्तु प्रकृत लक्षण के द्वारा इनमें प्रधान रूप से करणत्व की उपपत्ति सम्भव है, क्योंकि सव्यापार कारण तो ये हैं ही । तदनुसार किसी क्रिया का करण होने का अभिप्राय है कि वह व्यापार-सम्बन्ध से उस क्रिया का कारण है ( 'व्यापारसम्बन्धेन तत्क्रियाकारणत्वं तत्क्रियाकरणत्वमित्यर्थः 'माधवी, ४३ ) ।
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आत्मा का करणत्व
इस लक्षण से एक कठिनाई सुलझ सकती है । समस्या यह है कि आत्मा अदुष्ट के द्वारा सभी कार्यों के प्रति कारण है, अत: उनके प्रति आत्मा के करणत्व का अनिष्ट प्रसंग आ जायगा । विशेषतः ज्ञान, इच्छा इत्यादि ( जो आत्मा के धर्म हैं ) के प्रति मनोयोग के द्वारा आत्मा कारण बनती है, अतः उसका कारणत्व दुरुच्छेद है । किन्तु जब हम व्यापार-सम्बन्ध से कारण होने पर करणत्व की बात करते हैं तब आत्मा में ऐसी स्थिति नहीं मिलती । आत्मा यद्यपि कार्यानुकूल अदृष्ट धारण करती है तथापि व्यापार-सम्बन्ध से उसकी कारणता अप्रामाणिक है। आत्मा को करण मानने में वैयाकरणों को कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि यदि उसी के व्यापार के बाद क्रियानिष्पत्ति विवक्षित हो ( जैसे - आत्मानमात्मना वेत्सि ) तो उसका करणत्व निर्विवाद होगा । किन्तु प्रत्यक्षादि ज्ञानों में इन्द्रियादि तक ही करण को नियमित करनेवाले नैयायिकों के लिए आत्मा के करण होने में बड़ी विपत्ति है । इसका निराकरण उपर्युक्त प्रकार से तो होता ही है, एक दूसरी विधि भी भवानन्द को दिखलायी पड़ती है । यह सही है कि कार्यमात्र या ज्ञानेच्छादि का कर्ता आत्मा है, वह उपाधेय अर्थात् धर्मी है । उस पर विभिन्न धर्म या उपाधियाँ आरोपित हो सकती हैं । प्रस्तुत स्थल में कर्तृत्व और करणत्व उपाधियों के रूप में हैं जो एक ही साथ आत्मा पर आरोपित हैं । उपाधि और उपाधेय का तादात्म्य होना कोई आश्चर्य नहीं है, सभी वादी इसे मानते हैं । करणत्व और कर्तृत्व – ये उपाधियाँ भले ही एक-दूसरे से भिन्न हैं, उनमें परस्पर तादात्म्य नहीं होता किन्तु उपाधेय के साथ उनका तादात्म्य सम्भव है । अतः आत्मा ( उपाधेय ) में क्रमश: करणत्व तथा कर्तृत्व का बोध हो सकता है और विवक्षा से
१. 'व्यापारसम्बन्धेन कारणत्वस्य विवक्षितत्वान्न दोषः । आत्मनः कार्यानुकूलादुष्टवत्त्वेऽपि तेन सम्बधेन कारणत्वे मानाभावात्' । - का० च० माधवी, पृ० ४३ २. ( क ) ' न चैवमदृष्टद्वारा कार्यमात्रे, विशेषतो ज्ञानेच्छादौ मनोयोगद्वाराऽऽत्मनः करणत्वापत्तिः उपाधेयसङ्करस्येष्टत्वात्, अनुकूलकृतिसमवायित्वलक्षण कर्तृत्वस्य निरुक्तकरणत्वाद् अन्यत्वेनैव उपाध्योरसङ्करात्' । - का० च०, पृ० ४२