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संस्कृत - व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
यह नहीं कहा जा सकता कि असत् का अर्थ यहाँ त्रिकालबाधित नहीं लेना चाहिए और केवल अविद्यमान पदार्थ को ही असत् कहा गया है। त्रिकाल में बाधित तथा सर्वथा वस्तुशून्य पदार्थ को भी शब्दसत्ता के कारण करण माना जा सकता है; जैसे - वन्ध्यापुत्रेणोदाहरति ( अर्थात् वन्ध्यापुत्र - शब्द के द्वारा असत् पदार्थ का उदाहरण देता है ) । यहाँ उदाहरण - क्रिया की निष्पत्ति वन्ध्यापुत्र - शब्द के व्यापार ( उच्चारणादि ) के अनन्तर ही हो जाने से इसका करणत्व संगत है । व्याकरण में शब्दसत्ता या बौद्धार्थ ही ग्राह्य होता है । तभी तो ऐसे-ऐसे वास्तविक दृष्टि से असत् पदार्थों में प्रातिपदिकत्व देकर सु आदि प्रत्यय लगते हैं ।
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कोई पदार्थ साधन के विभिन्न रूपों को विवक्षा के कारण ग्रहण करता है । इसका परिणाम यह होता है कि साधकतम के रूप में विवक्षित प्रत्येक पदार्थ को करण कहते हैं । भर्तृहरि के शब्दों में
'धर्माणां तद्वता भेदादभेदाच्च विशिष्यते । क्रियावधेरवच्छेदविशेषाद् भिद्यते यथा ॥
- वा० प० ३।७।१००
अर्थात् जैसे अवधि में भेद - विशेष की कल्पना करने से क्रिया में विशेषता हुआ करती है वैसे ही आश्रय के साथ आश्रित धर्मों के भेद और अभेद की विवक्षा से भी उसमें विशेषता ( भिन्नता ) होती है । 'देवदत्तः काष्ठैः पचति' इस वाक्य में इन्धन
त तेजस् ( अग्नि ) की अभेद - विवक्षा हैं, इन्धन आश्रय है, तेजस् आश्रित । हम बोध करेंगे — 'देवदत्तकर्तृ केन्धनकरणिका पचिक्रिया' । जब तेजस् का इन्धन से भेद विवक्षित होता है तब प्रयोग 'एधाः पचन्ति तेजसा ' तथा बोध 'तेजः करणिका इन्धन - कर्तृका पचिक्रिया' होगा । फिर भी जब तेजस् से उष्णता का भेद दिखाकर क्रियासिद्धि मेंष्णता का उपयोग दिखलाना अभीष्ट हो तब प्रयोग होगा - - ' तेजः पचत्यौष्ण्येन' ( उता से अग्नि पका रही है ) । अंतः साधनविशेष से क्रिया में भेद होता चला जाता है । इसकी तुलना अपादान कारक में विवेच्य अवधि के भेदों ( अवच्छेदों ) से की जाती है । 'ग्रामादागच्छति' को भेद-विवक्षा से 'ग्रामस्य समीपादागच्छति' में बदल सकते हैं । ग्राम में कई चीजों का समूह है - अरण्य, सीमाभूमि, वेदिका, मकान इत्यादि । अब कोई कहाँ से आ रहा है, इसका विशेष बिना कहे 'ग्रामादागच्छति' कहा जाता है, क्योंकि उन विशेषों ( आश्रित धर्मों) से ग्राम ( आश्रय ) के अभेद. की विवक्षा होती है । जब ग्राम के मार्गों का प्रसंग आता है तब सीमादि से भेदविवक्षा होती है और अवधि में भेद होता है - ' ग्रामस्य समीपादागच्छति' २ ।
१. द्रष्टव्य ( प० ल० म०, पृ० ४२३ ) –
'एष वन्ध्यासुतो याति खपुष्पकृतशेखरः । कूर्मक्षीरत्रये स्नातः शशशृङ्गधनुर्धरः ॥
इत्यत्र वन्ध्यासुतादीनां बाह्यार्थशून्यत्वेऽपि प्रातिपदिकत्वम्' । २. हेलाराज ३, पृ० ३११ '