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कर्म-कारक
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ही स्थितियों में उस फल के आश्रय के रूप में उद्दिष्ट वस्तु को कर्म कहा जा सके । यह 'परम्परया उत्पाद्य' के ग्रहण का ही परिणाम है कि पयस् को कर्मसंज्ञा हो सकी। यदि 'प्रयोज्य' के स्थान पर 'जन्य' ( = साक्षात् उत्पाद्य ) रखा जाता तो चूंकि प्रधानभूत गोप-स्थित व्यापार से जन्य केवल गोव्यापार ( विभागानुकूल व्यापार ) ही है, विभाग नहीं-अतः विभागाश्रय पयस् की कर्मसंज्ञा नहीं हो सकती थी। साक्षात् तथा परम्परा दोनों अर्थों को लेनेवाले 'प्रयोज्य' का निवेश करने से प्रधान व्यापार का प्रयोज्य ( परम्परयोत्पाद्य ) विभाग भी हो सकता है, जिसका आश्रय ‘पयस्' कर्म है।
लघुमञ्जूषा ( पृ० १२०३ ) में इस 'प्रयोज्य' पद का दूसरा ही फल दिखलाया गया है । नागेश 'चैत्रं ग्रामं गमयति' इत्यादि में ग्राम के कर्मत्व का साधन करते हुए कहते हैं कि प्रयोज्य होने का अर्थ है कि जन्य, अजन्य -दोनों स्थितियों में काम दे सके। विशेषण रूप से विषयता से सम्बद्ध स्थितियों की व्याख्या 'अजन्य' के द्वारा होती है। 'जानाति' 'इच्छति' इत्यादि क्रियाओं के प्रयोग में ज्ञानेच्छादि व्यापार विषयता के निरूपक हैं--यह भी एक पक्ष है । और चूंकि विषयता इस पक्ष में ज्ञानादि से उत्पन्न नहीं होती ( अजन्य ) है, अतः इसमें 'फलाश्रय' कैसे होगा? इसीलिए अजन्य का निवेश करने से भी काम चलाया जा सकता है कि विषयता के अजन्य-पक्ष में भी फलाश्रय को कर्मसंज्ञा हो सके। बालम्भट्ट इसमें नागेश की अरुचि देखते हैं कि वास्तव में जन्यता तो होती ही है, अतः इसका कोई उपयोग नहीं ( वस्तुतो जन्यत्वमेवेति नैतस्या उपयोगः ) । अतः 'प्रयोज्यत्व' का उपर्युक्त उपयोग ही ठीक है।
नागेश के कर्मलक्षण में 'प्रकृत धात्वर्थ का फल' इस अंश का निवेश इसलिए किया गया है कि 'प्रयागात्काशीं गच्छति' इस वाक्य में प्रयाग को कर्मसंज्ञा न हो जाय । स्थिति यह है कि काशी-गमन में उत्पन्न विभाग का आश्रय यद्यपि प्रयाग है तथापि विभाग तो प्रस्तुत धातु (गम्) का अर्थ ही नहीं है । गमन का अर्थ उत्तरदेशसंयोगानुकूल व्यापार ही होता है। हाँ, इतना अवश्य है कि गमनक्रिया में अनिवार्य ( नान्तरीयक ) होने के कारण विभाग उत्पन्न होता है, किन्तु उसका मूल अर्थ वही नहीं है । अतः प्रकृत धात्वर्थ के फल का आश्रय नहीं होने से प्रयाग को कर्मसंज्ञा नहीं हो सकती । दूसरी बात यह भी है कि केवल फलतावच्छेदक सम्बन्ध से जो फलाश्रय के रूप में उद्दिष्ट ( फलाश्रय होकर इच्छा का विशेष्य ) हो वही कर्म होता है। प्रयाग के साथ ऐसी बात नहीं, क्योंकि 'गच्छति' क्रिया के प्रयोग में 'अनुयोगित्वविशिष्ट समवाय' फलतावच्छेदक सम्बन्ध होता है। इससे काशी में फलाश्रयता उद्दिष्ट है, प्रयाग में नहीं । वह संयोग का अनुयोगी नहीं है । इसलिए भी प्रयाग को कर्मसंज्ञा नहीं होगी।
यहाँ एक शंका उठती है कि जब 'प्रकृत धात्वर्थफल का आश्रय' इतना ही कह देने से प्रयाग की कर्मत्वापत्ति का वारण हो जाता है तब व्यर्थ का 'उद्देश्य होना' कहने से क्या प्रयोजन है ? नागेश कहते हैं कि 'काशीं गच्छन् पथि मृतः' ( काशी