________________
अध्याय
पृष्ठ
तथा उपपदविभक्ति - प्रथमा ७३, द्वितीया ७४, तृतीया ७५, चतुर्थी ७६, पंचमी ७८, षष्ठी विभक्ति तथा शेष का अर्थ ८०, सप्तमी ८६, कारकविभक्ति का प्राबल्य ८८, सम्बोधन का अर्थ ९१ विवक्षात: कारकाणि ९५, विवक्षा का शास्त्रत्व तथा उसके प्रकार ९८, निषेधवाक्यों में विभक्ति १०० ।
४
( १४ )
६
कर्तृ-कारक
१०१-१४०
व्युत्पत्ति १०१, पाणिनि - कृत लक्षण १०१, 'स्वतन्त्र' का पतंजलि द्वारा विवेचन १०१, कर्ता की स्वतन्त्रता : भर्तृहरि के विचार १०४, प्रयोज्य का कर्तृत्व १०६, अचेतन का कर्तृत्व १०९, शब्दजगत् की विलक्षणता ११०, 'अङ्कुरो जायते' में प्रकृति-विकृति का विवेचन १११, प्रकृति - विकृति का पर्याय से कर्तृत्व ११५, हेतु ( प्रयोजक ) का विचार ११८, नव्यन्याय में कर्तृ-विचार १२३, 'कृत्याश्रयः कर्ता' - ' - भवानन्द १२५, गदाधर १२६, अचेतन का गौण कर्तृत्व - नव्य-व्याकरण तथा कर्तृत्व-लक्षण १२७, भट्टोजिदीक्षित, tatusभट्ट तथा नागेश का योगदान १२८, प्रयोजक और प्रयोज्य १३५, कर्ता के भेद १३७ ।
कर्म-कारक
१४१-१९३
व्युत्पत्ति १४१, कर्ता का ईप्सिततम १४२, ईप्सिततम का पतञ्जलि द्वारा विवेचन १४४, अनीप्सित का कर्मत्व १४६, द्वेष्य तथा उदासीन १४७, न्यायदर्शन में कर्म - विवेचन १४९ जयन्तभट्ट की आपत्ति ३५०, पुरुषोत्तम द्वारा समाधान १५०, मीमांसादर्शन में कर्म १५१, संस्कार्य द्रव्य १५२, नव्य-न्याय में कर्मलक्षण तथा उनकी आलोचना १५२, नव्य-व्याकरण में कर्मलक्षण--दीक्षित, कौण्डभट्ट तथा नागेश द्वारा सभी मतों की समीक्षा १६३, द्विकर्मक धातु तथा अकथित कर्म १७१, द्विकर्मक धातुओं की सूची का विकास १७२, अकथित कर्म पर भर्तृहरि का वक्तव्य १७६, प्रयोज्य कर्ता का कर्मत्व १८१, कर्म के भेद १८५, निर्वर्त्य कर्म १८६, विकार्य कर्म १८७, प्राप्य कर्म १८९, कर्म के अन्य भेद १९१ ।
१९४-२२३
तमप्-प्रत्यय का अर्थ :
करण-कारक व्युत्पत्ति १९४, साधकतम कारक १९४, पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्ष १९५, प्रकर्ष का अर्थ १९७, प्रकर्ष स्वकक्षा में या परापेक्षक १९९, कर्ता तथा करण में भेद २०१, कर्तृसंज्ञा द्वारा करणसंज्ञा का बाध २०३, विद्यमान करण द्वारा क्रियोपकार