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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
विभाग प्रकृत धातु ( त्यज् ) का वाच्य ही है। धातु का वाच्यार्थ जहाँ विभाग नहीं हो ( जैसे—गम्, पत् आदि धातुओं का ) वहीं विभागाश्रय को अपादान कहते हैं। जहाँ विभाग प्रकृत धातु का वाच्यार्थ हो वहाँ अपादान तथा कर्म दोनों संज्ञाओं की युगपत् प्राप्ति होने पर 'अपादानमुत्तराणि कारकाणि बाधन्ते'२ इस परिभाषा के अनुसार कर्म ही होगा।
पत्-धातु के अर्थ में यदि अधोदेशरूप कर्म को अन्तर्भूत करके ( धात्वर्थेनोपसङ्ग्रहात् ) इसे अकर्मक बना दें तो 'पर्ण वृक्षाद् भूमौ पतति' प्रयोग भी संगत होता है । इसमें अधोदेश संयोगरूप फल के आश्रय के रूप में विवक्षित है।
इसी प्रकार इस लक्षण के अनुसार स्पन्द् तथा वृध धातुओं के द्वारा फलावच्छिन्न व्यापार का बोध नहीं होने से क्रमशः पूर्व तथा अपर देशों में और तीर में कर्मत्व का प्रसंग नहीं आता। वस्तुस्थिति यह है कि ये धातु अकर्मक हैं, सकर्मक नहीं । फलावच्छिन्न व्यापार का बोध कराने पर धातुओं को मुख्यरूप से सकर्मक कहा जाता है। वैसी स्थिति में ही इनके साथ कर्म आता है, अन्यथा नहीं। 'नदी तीरे वर्धते', 'स्पन्दते' इत्यादि व्यापारमात्र के बोधक हैं, फलावच्छिन्न व्यापार के नहीं; इसलिए इनमें धातु अकर्मक हैं ।
भवानन्द यहाँ प्रश्न उठाते हैं कि ऐसी स्थिति में 'घटं जानाति' इत्यादि में ज्ञाधातु तो फलावच्छिन्न व्यापार का बोधक नहीं है, तब घट को कर्म कैसे माना जाय ? इसका उत्तर यह है कि ज्ञा ( जानाति ), द्विष् ( द्वेष्टि ), इष् ( इच्छति ), कृ ( करोति ) इत्यादि धातुओं से सविषयक पदार्थ का बोध होता है। अतः विषयिता के रूप में विभक्त्यर्थ के द्वारा पदार्थ ( नामार्थ ) का अन्वय मानकर सकर्मकता की व्य स्था की जा सकती है। किन्तु यहाँ गौण सकर्मकता होती है । 'विषयिता के रूप में विभक्त्यर्थ' का उल्लेख इसलिए हुआ है कि केवल 'विभक्त्यर्थ' कहने पर 'आश्रयत्वरूप' विभक्त्यर्थ से नामार्थ से अन्वय-बोध हो जाने पर भू आदि धातुओं को भी सकर्मक मानना पड़ता । विषयिता रूप विभक्त्यर्थ के द्वारा अन्वय न होने के कारण यत्-धातु ( यतते ) अकर्मक है, यद्यपि उद्देश्यता रूप विभक्त्यर्थ के द्वारा ( जैसे-भोजनाय यतते ) नामार्थ का अन्वय होता है । 'भोजनं यतते' यह प्रयोग नहीं होता । कुछ लोगों का कथन है कि यत्-धातु है तो सकर्मक ही, किन्तु जैसे 'मातुः स्मरति' में 'अधीगर्थदयेशां कर्मणि' ( पा० सू० २।३।५२ ) में कर्म में द्वितीया को
१. “ननु 'वृक्षं त्यजति खगः' इत्यत्र वृक्षस्य विभागरूपफलाश्रयत्वेनापादानत्वमस्त्विति चेन्न । अत्र हि विभागः प्रकृतधात्वर्थः । यत्र च विभागो न प्रकृतधात्वर्थस्तद्विभागाश्रयस्येवापादानत्वम्, यथा 'वृक्षात्पतती'त्यादौ"। -प० ल० म०, पृ० १७७
२. भाष्य २, पृ० १०१। ३. प० ल० म०, पृ० १७६ । ४. कारकचक्र, पू० २० ।