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कर्म-कारक
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कर्म की उपस्थिति व्याघात है । पुनः त्यज-धात् का अर्थ विभागावच्छिन्न व्यापार और उसका फल संयोग है । इसके फलस्वरूप इसके प्रयोग में उत्तरदेश को कर्म मानना पड़ेगा, क्योंकि त्याग-क्रिया का फल ( = संयोग ) उसी को प्राप्त होता है । इसी प्रकार स्पन्द-धातु का ( जिसका अर्थ क्रियामात्र है ) संयोग तथा विभाग दोनों ही फल है। यदि इस धातु का विभागरूप फल लें तो पूर्वदेश में अतिव्याप्ति होगी ( = पूर्वदेश कर्म हो जायगा ) और यदि संयोगरूप लें तो उत्तरदेश को कर्म कहना पड़ेगा । इस प्रकार अतिव्याप्ति का समुदाय इस लक्षण को परास्त कर देगा।
__ इतने आक्षेपों से भी भवानन्द को संतोष नहीं। वे पुनः कहते हैं कि 'तीरे नदी वर्धते' इस वाक्य में वृद्धि का अर्थ है---अवयवों का उपचय । इस रूप में विद्यमान क्रिया का परम्परा-सम्बन्ध से तीर-प्राप्ति के रूप में फल मिलता है। सरलार्थ यह है कि नदी की वृद्धि जल की वृद्धि है, जो धीरे-धीरे तीर तक पहुँच रहा है। प्रत्यक्षतः भले ही न हो, किन्तु नदी के बढ़ने का फल जल की तीर-प्राप्ति ( नदी-तीरसंयोग ) ही है । अतएव अवयवों के उपचय से. उत्पन्न संयोगरूप फल का आश्रय नदी का तीर है, जिसमें उपर्युक्त लक्षण के अनुसार कर्मत्व की प्रसक्ति होगी। __ इस लक्षण में 'पर' शब्द के अर्थ के विषय में भी अनेकशः शंकाएँ होती हैं । पर का सामान्य अर्थ है-भिन्न; तदनुसार यह सापेक्ष शब्द है, क्योंकि तुरन्त प्रश्न होगा कि किससे भिन्न ? कर्म से या फलाश्रय से ? यदि 'कर्म से भिन्न पदार्थ ( कर्ता ) में समवेत व्यापार...' ऐसा अर्थ लें तो विचित्र असंगति होगी। एक तो कर्म के लक्षण में जब कर्म को ज्ञातपूर्व पदार्थ के रूप में ग्रहण करते हैं तो उसके लक्षण का कोई
औचित्य प्रतीत नहीं होता--ऐसा करना अन्योन्याश्रय-दोष है, क्योंकि लक्ष्यभूत कर्मपदार्थ के बोध के लिए कर्म का ज्ञान करके उससे भिन्न पदार्थ का ज्ञान करना होगा। दूसरी बात यह है कि प्रतिपाद्य वस्तु का प्रतिपादन तद्भिन्नत्वाभाव कहकर करना उचित नहीं। अपोह की यह प्रक्रिया अन्तिम गति है। अतः कर्म के लक्षण में 'कर्मभिन्न' शब्द का प्रयोग असंगत है। ___ अब यदि फलाश्रय से भिन्न के अर्थ में 'पर' शब्द का ग्रहण करके यह अर्थ निकालें कि फलाश्रय से भिन्न वस्तु में समवेत क्रिया-व्यापार से उत्पाद्य फल को धारण करनेवाला कर्म है तो यह आपत्ति होगी कि जिस प्रकार फलाश्रय से भिन्नता के अभाव में ( भिन्न न होने के कारण ) देवदत्त कर्म नहीं है, उसी प्रकार ग्राम भी कर्म नहीं
१. 'गमिपत्योः पूर्वस्मिन्देशे, त्यजेश्चोत्तरस्मिन्देशे, स्पन्देः पूर्वापरयोश्च कर्मत्वप्रसङ्गात्।
--कारकचक्र, पृ० १९ २. स्वसमवायिसंयोगसम्बन्धेन-स्व-नदी, उसके समवायी == जलबिन्दु, उनका संयोग तीर के साथ है।
३. “एवं 'तीरे नदी वर्धते' इत्यादी वृद्धे रवयवोपचयस्य परम्परया तीरप्राप्तिफलकत्वात् तज्जन्यफलाश्रये तीरेऽतिव्याप्तेः" ।
-का० च०, पृ० २०