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संस्कृत - व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
अभिप्रेत है, क्योंकि सिद्धान्तकारिका में उन्होंने व्यापार की प्रधानता निरूपित की है । अतएव धातु का प्रधान अर्थ या उसके द्वारा उपात्त व्यापार एक ही है- किसी के आश्रय के रूप में 'स्वतन्त्र' का लक्षण करना एक ही बात है । इस स्थान पर भर्तृहरि के नाम से एक कारिकांश का उद्धरण दीक्षित के ग्रन्थों में, वैयाकरणभूषण में तथा परमलघुमंजूषा में दिया गया है
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'धातुनोक्तक्रिये नित्यं कारके कर्तृतेष्यते' | २
उसे उपजीव्य मानकर दीक्षित ने जो स्वतन्त्र ( कर्ता ) का लक्षण किया है वह सर्वथा उचित ही है ।
भट्टोजिदीक्षित, कौण्डभट्ट तथा नागेश का योगदान
भट्टोजिदीक्षित का अभिमत यह है कि नैयायिक लोग जिस प्रकार गौण और मुख्य के रूप में कर्तृभेद मानकर 'देवदत्तः पचति' तथा 'स्थाली पचति' में पार्थक्य की व्यवस्था करते हैं वैसी बात वस्तुतः नहीं है । स्वतन्त्र रूप में अर्थात् धात्वर्थव्यापार के आश्रय के रूप में जिसकी भी स्थिति हो जाय - इसमें वक्ता की इच्छा प्रधान नियामक होती है - वह कर्ता है । अन्न के पाक के समय उसकी विक्लित्ति के पूर्व अनेकानेक व्यापार काष्ठ, स्थाली आदि को भी विवक्षा से दे सकते हैं । अतएव इनमें भी कर्तृत्व होता है, अन्यथा प्रथमा ( काष्ठानि पचन्ति ) या तृतीया ( काष्ठैः पच्यते ) कर्तृमूलक विभक्तियाँ इनमें नहीं होती ।
दीक्षित के 'प्रधानीभूतधात्वर्थाश्रयत्वं स्वातन्त्र्यम्' के विरोध में शंका हो सकती है । 'देवदत्तेनौदनः पच्यते' इस कर्मवाच्य वाले प्रयोग में कर्म की प्रधानता होने से वैयाकरण-मत में फलमुख्यविशेष्यक शाब्दबोध स्वीकार किया जाता है, क्योंकि लकार सीधा कर्म का अभिधान करता है । फलतः देवदत्त में वर्तमान धात्वर्थव्यापार कर्ता के द्वारा व्याप्त नहीं हो सकेगा । इस दोष के निराकरणार्थ शब्दरत्नकार हरिदीक्षित तथा नागेश स्वातंत्र्यं परिष्कार में 'कर्तृप्रत्यय के सहोच्चारण की स्थिति में' इतना विशेषण लगा देते हैं । इस विशेषण के जोड़ने से यह स्थिति आ जाती है कि अब -
१. ' फलव्यापारयोर्धातुराश्रये तु तिङः स्मृताः । फले प्रधानं व्यापारस्तिङर्थस्तु विशेषणम्' || - भूषणकारिका २ २. यह वास्तव में श्लोकवार्तिक ७१वीं कारिका का उत्तरार्ध है । गुरुपद हाल्दार इसे इस प्रकार पूरा करते हैं - 'व्यापारे च प्रधानत्वात्स्वतन्त्र इति चोच्यते' ।
३. ( तुलनीय – सि० कौ० ) क्रियायां स्वातन्त्र्येण विवक्षितोऽर्थः कर्ता स्यात्' । ४. (क) 'प्राधान्यं च कर्तृप्रत्ययसमभिव्याहारे धात्वर्थनिष्ठविशेष्यतानिरूपित - प्रकारतानाश्रयधात्वर्थत्वम्' । - शब्दरत्न, पृ० ५०६ (ख) “कर्तृप्रत्ययसमभिव्याहारे इत्यनेन 'पक्वस्तण्डुलो देवदत्तेन' इत्यादी फलस्य विशेष्यत्वेऽपि देवदत्तस्य कर्तृत्वसिद्धिः" । --ल० म०, पृ० १२४२