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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
में जहाँ हेतुकर्ता से भय का अर्थ न हो वहाँ षुक् का आगम नहीं होता - 'कुञ्चिकया एनं भाययति' । कुंजी डराने का साधन है, प्रयोजक हेतु नहीं" ।
तृतीया विभक्ति के विधान में एक सूत्र आया है - 'हेती' ( २।३।२३ ) । यहाँ लौकिक हेतु का ग्रहण है, क्योंकि प्रयोजक अर्थवाला हेतु लेने पर तो कर्तृत्व के ही कारण तृतीया की सिद्धि हो जायेगी और सूत्र व्यर्थ होगा । उदाहरण हैं- धनेन कुलम्, कन्यया शोकः, विद्यया यशः । धनादि लौकिक हेतु हैं । किन्तु उसके बाद के सूत्र 'अकर्तर्यणे पञ्चमी' ( २।३।२४ ) में हेतु की अनुवृत्ति होने पर लौकिक हेतु का ग्रहण करके भी पारिभाषिक प्रयोजक हेतु का पर्युदास किया जाता है— कर्तृवर्जित ऋणरूप हेतु से पञ्चमी विभक्ति होती है । यथा - शताद् बद्धः । कर्तृरूप हेतु होने से 'शतेन बन्धितः ' होगा । इसी से जयादित्य कहते हैं - ' शतमृणं च भवति, प्रयोजकत्वाच्च कर्तृसंज्ञकम्' ।
'लक्षणहेत्वोः क्रियाया:' ( पा० ३।२।१२६ ) में लौकिक हेतु है, क्योंकि यहाँ हेतु धात्वर्थ का विशेषण है । लक्षण तथा हेतु के अर्थ में वर्तमान धातु से लट् के स्थान में शतृ-शानच् प्रत्यय होते हैं, यदि ये लक्षण हेतु क्रिया-विषयक हों । लक्षण – 'शयाना भुञ्जते यवनाः ' । हेतु - 'अर्जयन् वसति । निवास का हेतु है -- द्रव्यार्जन, जो क्रिया-विषयक है । यदि यहाँ प्रयोजक हेतु लिया जाय तो वह धात्वर्थं का विशेषण ( विषय ) नहीं बन सकता, क्योंकि वह तो सदैव क्रिया से युक्त रहता है, कभी व्यभिचरित नहीं होता । किन्तु विशेषण की सार्थकता सम्भव तथा व्यभिचार से होती है । यदि लौकिक हेतु का ग्रहण किया जाय ( जो द्रव्य, गुण तथा क्रिया तीनों के विषय में होता है ) तभी सम्भव तथा व्यभिचार की पूर्ति सम्भव है । इसी प्रकार 'हेतुहेतुमतोलिङ ( ३।३।१५६), 'कृञो हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु' ( ३।३।२० ) इत्यादि में भी लौकिक हेतु का ग्रहण किया गया है ।
प्रयोजक तथा प्रयोज्य के सम्बन्ध को लेकर एक आशंका उठायी जा सकती है । सब कुछ रहने पर भी प्रयोज्य को प्रयोजक अपने प्रेषण तथा अध्येषण व्यापार से व्याप्त करता है । इस प्रकार आप्यमान होने से प्रयोज्य की कर्मसंज्ञा का प्रसंग हो जाता है । कुछ स्थितियों में प्रयोज्य को कर्मसंज्ञा हो भी जाती है, जिसे पाणिनि ने 'गतिबुद्धि ० ' (१।४।५२ ) सूत्र में समाविष्ट किया है । शंका करने वाले का तात्पर्य यह
१. 'नात्र हेतु: प्रयोजको भयकारणं, किं तर्हि ? कुविका' |
२. वही, पृ० ११६ |
३. अज्ञात स्रोत की एक प्रसिद्ध उक्ति
-- काशिका, पृ० ६६२
'सम्भवव्यभिचाराभ्यां स्याद् विशेषणमर्थवत् । हि शीतेन चोष्णेन वह्निः क्वापि विशिष्यते ' ॥