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( १० ) प्रयोग हुआ है-सूत्ररूप में यही कहा जा सकता है । प्रथम तथा तृतीय कारण व्यक्तिगत हैं, उन पर कुछ नहीं कहना ही श्रेयस्कर है। व्युत्पत्ति देने वाले आचार्यों के प्रति आभार प्रकट करना अवश्य ही आर्जव होगा।
इस ग्रन्थ की रचना में व्याकरणशास्त्र तथा न्यायदर्शन के सम्बद्ध ग्रन्थकारों, टीकाकारों तथा उनकी कृतियों के सूक्ष्म अनुशीलन का बहुत बड़ा योगदान है । शास्त्रों का अनुशीलन न केवल अदृष्ट का सुन्दर फल देता है, अपितु दृष्ट फल देने में भी उसकी महार्ह भूमिका होती है--इसका साक्षात्कार इस ग्रन्थ-प्रसूति में निहित है। विषय से सम्बद्ध प्राचीन ग्रन्थों के अतिरिक्त अनेक अर्वाचीन अंग्रेजी-हिन्दी-बंगला ग्रन्थों से सहायता ली गयी है। इसका रचनाकाल १९६६ से १९७२ ई० है । उस समय तक जो ग्रन्थ उपलब्ध थेउनका भरपूर उपयोग इसमें किया गया है। इधर व्याकरण-दर्शन तथा भाषादर्शन पर कुछ अच्छी पुस्तकें निबन्ध-संग्रहों के रूप में अथवा एक ही लेखक की रचना के रूप में प्रकाशित हुई हैं। किन्तु इस विषय पर पिछले बीस वर्षों में भवानन्द के 'कारकचक्र' पर डॉ० अरविन्द कुमार द्वारा रचित व्याख्या के अतिरिक्त कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है । अतएव प्रस्तुत ग्रन्थ के रचनाकाल तथा प्रकाशन-काल में विशाल अन्तराल होने पर भी कोई दुःख नहीं है। इससे पाश्चात्य जगत् को भी कारक-विषयक दार्शनिक चिन्तन का अधिगम होगा-ऐसा मुझे विश्वास है ।
___ इस अवसर पर मैं तीन स्वर्गीय विद्वानों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना अपना कर्तव्य मानता हूँ। इनमें प्रथम हैं--डॉ० सातकड़ि मुखोपाध्याय जो कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत-विभाग के अध्यक्ष तथा आचार्य पद से सेवा-निवृत्त होकर नवनालन्दा महाविहार के निदेशक बने थे। मुझे यह कहते हुए अत्यन्त गौरव-बोध होता है कि वे मेरे प्रथम शोधगुरु थे, जिनके निर्देशन में बौद्ध-ग्रन्थ प्रमाणवातिक पर मैं कुछ दिनों तक काम करता रहा था। शोधकार्य की प्रक्रिया का ज्ञान उन्हीं से पाकर जीवन-दर्शन का परिमार्जन किया। तदनन्तर पटना विश्वविद्यालय के भूतपूर्व कुलपति आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने मुझे कठिन ग्रन्थों की व्याख्या के लिए सरल-सहज-सुबोध शैली का महत्त्व समझाया। मुख्यतः संस्कृत काव्यशास्त्र तथा भाषाविज्ञान के अग्रणी विद्वान् होने पर भी इन्होंने मुझे व्याकरण-दर्शन के गहन कान्तार में प्रवेश की प्रेरणा भी दी। अन्ततः पटना विश्वविद्यालय के भूतपूर्व संस्कृतविभागाध्यक्ष डॉ० बेचन झा के प्रति भी मैं कृतज्ञ हूँ जिनके आशीर्वचन से यह ग्रन्थ लिखा गया। इन तीनों आचार्यों की असंख्य शिष्य-परम्परा आज पूरे भारत में अपने गुरुनिष्ठ ज्ञान के आलोक का प्रसारण कर रही हैं । उन शिष्यों में मेरा भी एक साधारण स्थान है।