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________________ कर्तृ-कारक ११७ जन्म लेता है अर्थात् विकार का भी कर्तृत्व समर्थित है। पूर्व और उत्तर अवस्थाएँ वस्तु की विभिन्न उपाधियाँ हैं । उनसे अवच्छिन्न होने पर एक ही वस्तु पूर्वावस्था से सामंजस्य रखकर उत्तरावस्था को प्राप्त करने के लिए जब उन्मुख होती है तब कहते हैं-जायते । इस प्रकार प्रकृति तथा विकार की समानाधिकरणता तथा कर्तृत्व की भी सिद्धि हो जाती है। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि सर्वत्र दोनों ( प्रकृति तथा विकार ) को एक ही साथ कर्तृत्व होगा। यह सत्य है कि उपर्युक्त विवेचन से हम प्रकृति तथा विकृति में अभेद-दर्शन करते हैं तथा जन्-धातु के साथ दोनों का अन्वय हो सकता है, किन्तु कर्तप्रत्यय की उत्पत्ति में कहीं तो केवल विकृति व्यापारयुक्त होती है तो कहीं केवल प्रकृति ही। सव्यापार होने पर ही किसी पदार्थ को कर्तृत्वशक्ति मिलती है, तटस्थ होने पर नहीं। पदार्थों की अनेक शक्तियों में कोई शक्ति कहीं उद्धृत होती है तो कोई कहीं। शक्ति के इसी उद्भव के कारण पदार्थ सव्यापार कहलाता है। वे भिन्न शक्तियाँ कहीं पर संसर्ग भी प्राप्त करती हैं, जिससे कर्तृत्व का आधान होता है । यदि प्रकृति में शक्ति-संसर्ग हुआ तो वही कर्ता होगी; यदि विकार में ऐसा हुआ तो विकार कर्ता होगा। दोनों में एक ही साथ शक्ति-संसर्ग होना सम्भव नहींपर्याय से ही ऐसा हो सकता है। यही कारण है कि दोनों में सव्यापारत्व की समान सम्भावना रहने पर भी एक में साक्षात् प्रकर्ष रहता है, जिससे वह अधिक व्यापारयुक्त कहलाता है और दूसरा गौण या अप्रकृष्ट व्यापारयुक्त ही रह जाता है । जो भी हो, प्रकृति और विकार का कर्तृत्व सम्भव है, किन्तु पर्याय से, युगपत् नहीं; यही वैयाकरण सिद्धान्त है। __ हेलाराज इस समस्त विवेचन को आनुषंगिक कहते हैं, क्योंकि यह कर्ता के स्वातन्त्र्य के मुख्य प्रश्न से पृथक हटकर अचेतन को कर्ता के रूप में ग्रहण करने से सम्बद्ध है । इस प्रश्न के अतिरिक्त भर्तृहरि पतञ्जलि द्वारा विवेचित 'प्रयोज्य के कर्तृत्व' पर भी विचार करते हैं । उन्हें भी यह आशंका है कि प्रयोजक के अधीन प्रयोज्य की प्रवृत्ति ( व्यापार ) रहने से उसकी स्वतंत्रता की क्षति होती है। इस विषय में भर्तृहरि का कथन है कि जब प्रयोज्य क्रिया में प्रवृत्त नहीं होता दिखलायी दे तब यह अनुमान करना पड़ता है कि उसमें क्रिया की सामर्थ्य है-इसी अनुमान या क्रियासिद्धि की सम्भावना के फलस्वरूप उसे स्वतंत्र ( कर्ता ) के रूप में प्रयुक्त किया जाता है । यदि ऐसा न मानें तो प्रयोग करना निरर्थक होगा, क्योंकि किसी १. द्रष्टव्य हेलाराज, ३।७।२ पर-'अनेकशक्तेरपि पदार्थस्य सदेव तथावस्थानेऽपि काचिच्छक्तिः क्वचिदुद्भुता विवक्ष्यते' । -पृ० २३२ २. 'सव्यापारतरः कश्चित् क्वचिद् धर्मः प्रतीयते । संसृज्यन्ते च भावानां भेदवत्योऽपि शक्तयः ॥ -वा० ५० ३।७।११९ ३. 'यस्तावदप्रवृत्तक्रियः प्रयोज्यः सोऽनुमितक्रियासामर्थ्य एव प्रयुज्यते' ।। -हेलाराज ३, पृ० ३२३
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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